व्रतों का महत्त्व:
व्रत एवं उपवास का महत्व हर देश में है। हर धर्म व्रत के लिए आदेश देता है क्योंकि इसका विधान आत्मा और मन की शुद्धि के लिए है। व्रत एवं उपवास करने से ज्ञान शक्ति में वृद्धि होती है तथा सद्विचारों को शक्ति प्राप्त होती है व्रत एवं उपवास में आहार का त्याग एवं सात्विक भोजन का विधान है, इसलिए आरोग्य एवं दीर्घ जीवन की प्राप्ति का उत्तम साधन है।
जो व्यक्ति नियमित व्रत उपवास करते हैं उन्हें उत्तम स्वास्थ्य तथा दीर्घ जीवन की प्राप्ति के अतिरिक्त इस लोक में सुख तथा परलोक में परमात्मा के चरणों में स्थान मिलता है। नारद पुराण में व्रतों की महिमा बताते हुए लिखा गया है:
माँ के समान अन्य कोई गुरु नहीं,
भगवान विष्णु जैसा कोई देवता नहीं,
व्रत उपवास जैसा कोई तप नहीं है।
(नारद पुराण) |
एकादशी का व्रत:
व्रतों में एकादशी को सर्वोपरि कहा गया है। एकादशी को शरीर को शुद्ध करने, मरम्मत और कायाकल्प करने का दिन माना जाता है और आमतौर पर आंशिक या पूर्ण उपवास द्वारा मनाया जाता है। व्रत श्रद्धा-भक्ति पूर्वक प्रारम्भ करना चाहिए। किसी के दबाव में आकर न करें।
एकादशी व्रत का प्रारम्भ करने का शुभ समय चैत्र, वैशाख, माघ और मार्गशीर्ष की एकादशियां माना गया हैं। कम से कम आठ वर्ष की आयु वाले व्यक्ति को व्रत रखना चाहिए ताकि वो व्रत के सही मूल्य को समझ सके। यह व्रत भगवान विष्णु को समर्पित होते हैं।
एकादशी कब आती हैं:
(कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष) |
हिंदू पंचांग की ग्यारहवीं तिथि को एकादशी कहते हैं। हर मास एकादशी दो बार आती हैं।
- कृष्ण पक्ष की एकादशी
- शुक्ल पक्ष की एकादशी
पूर्णिमा से बाद वाली एकादशी को कृष्ण पक्ष की एकादशी कहते हैं और अमावस्या के बाद वाली एकादशी को शुक्ल पक्ष की एकादशी कहते हैं।
एकादशी का व्रत साल में कितने बार आता हैं:
प्रत्येक माह में 2 एकादशी होती हैं। अधिक या मलमास पड़ने पर उस मास की 2 एकादशी और होती हैं। इस प्रकार कुल 26 एकादशियां हुई। ये सब एकादशियां अपने नाम के अनुरूप फल देने वाली हैं।
एकादशी व्रत के भेद:
यदि एकादशी का व्रत बिना किसी कामना के किया जाय तो यह 'नित्य' कहलाता है।
यदि एकादशी का व्रत किसी प्रकार की कामना जैसे धन, पुत्रादि की प्राप्ति अथवा रोग, दोष, क्लेश आदि से छुटकारे के लिए किया जाए तो ‘काम्य’ कहलाता है।
एकादशी व्रत की विधि:
व्रत का विधान दशमी से शुरू होकर तीन दिन में अर्थात् द्वादशी को सम्पन्न होता है। द्वादशी के द्वितीय प्रहर में व्रत का पारायण किया जाता है अर्थात् सुपात्र ब्राह्मण को भोजन कराके भोजन करना चाहिए अथवा मन्दिर में सीदा भिजवाना चाहिए। यदि एकादशी व्रत को भूल जाय तो द्वादशी को व्रत करके त्रयोदशी के दिन परायण करें।
स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर एकादशी व्रत का संकल्प करें और श्रद्धा- भक्ति सहित श्री हरि का व्रत के विधानानुसार पूजन करें। दिन में सोवें नहीं । व्रत अशक्त दुर्बल रुग्ण हो तो दूध, फल, औषधि आदि का सेवन करें। इस प्रकार व्रत करते हुए जब भी इच्छा हो व्रत का उद्यापन करके व्रतं को समाप्त कर सकते हैं। व्रत का उद्यापन किसी योग्य आचार्य के द्वारा करायें। दान दक्षिणा गौ दान आदि करें।