श्री सत्यनारायण व्रत कथा (Satyanarayan) (पूर्णिमा व्रत कथा) Spiritual RAGA

भगवान विष्णु के सत्य स्वरूप हैं सत्यनारायण। सत्यनारायण व्रत किसे भी दिन पुरे श्रद्धा भाव के साथ रख सकते है परन्तु माना जाता है की पूर्णिमा के दिन इस व्रत को रखने से ज़्यादा लाभ मिलता है। पूर्ण निष्ठा से सत्यनारायण के व्रत को रखने से स्वस्थ्य में एकाएक वृद्धि देखने को मिलती है।

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श्री सत्यनारायण व्रत कथा (Satyanarayan)

उद्देश्य: 


सत्यनारायण कथा को सुनने से भी सौभाग्य की प्राप्ति होती है। सभी दु:खों से मुक्त मिलती है। मनोवांछित फल मिलता है। घर में शांति रहते है। 


सामग्री: 


केले के खम्भे, पंच पल्लव, कलश, पंचरल, चावल, कपूर, धूप, पुष्पों की माला, श्रीफल, ऋतुफल, अंग वस्त्र, नैवेद्य, कलावा, आम के पत्ते, यज्ञोपवीत, वस्त्र, गुलाब के फूल, दीप, तुलसी दल, पान, पंचामृत (दूध, दही, घृत, शहद, शक्कर), केशर, बन्दनवार, चौकी।


पूजा विधि:


व्रत करने वाला पूर्णिमा व संक्रान्ति के दिन सायंकाल को स्नानादि से निवृत्त होकर पूजा-स्थान में आसन पर बैठकर श्रद्धापूर्वक श्री गणेश, गौरी, वरुण, विष्णु आदि सब देवताओं का ध्यान करके पूजन करे और संकल्प करे कि 


मैं सत्यनारायण स्वामी का पूजन तथा कथा-श्रवण सदैव करूँगा। 


पुष्प हाथ में लेकर नारायण का ध्यान करे, यज्ञोपवीत, पुष्प, धूप, नैवेद्य आदि से युक्त होकर स्तुति करे - 


हे भगवान्! मैंने श्रद्धापूर्वक फल, जल आदि सब 

सामग्री आपके अर्पण की है, इसे स्वीकार कीजिए। 

मेरा आपको बारम्बार नमस्कार है।


इस दिन आप शांति पाठ कर सकते हैं। इसके बाद सत्यनारायण जी की कथा पढ़े अथवा श्रवण करे।




पहला अध्याय

सत्यनारायण भगवान की जय

एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषियों ने श्री सूत जी से पूछा, "हे प्रभु! इस कलियुग में वेद-विद्या रहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा, इसलिए हे मुनिश्रेष्ठ! कोई ऐसा तप कहिए जिससे थोड़े समय में पुण्य प्राप्त होवे तथा मनवांछित फल मिले, वह कथा सुनने की हमारी इच्छा है।” 


सर्वशास्त्रज्ञाता श्री सूतजी बोले, "हे वैष्णवों में पूज्य! आप सबने प्राणियों के हित की बात पूछी है।” अब मैं उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगों से कहूँगा, जिस व्रत को नारदजी ने लक्ष्मीनारायण से पूछा था और लक्ष्मीपति ने मुनिश्रेष्ठ नारद से कहा था, सो ध्यान से सुनो:


एक समय योगीराज नारदजी दूसरों के हित की इच्छा से अनेक लोकों में घूमते हुए मृत्युलोक में आ पहुँचे। यहाँ अनेक योनियों में जन्मे हुए प्रायः सभी मनुष्यों को अपने कर्मों द्वारा अनेकों दुखों से पीड़ित देखकर सोचा, किस यत्न के करने से निश्चय ही प्राणियों के दुखों का नाश हो सकेगा। ऐसा मन में सोचकर विष्णुलोक को गये। 


वहाँ श्वेत वर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के ईश नारायण को देखकर, जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म थे तथा वरमाला पहने हुए थे, स्तुति करने लगे, "हे भगवान! आप अत्यन्त शक्ति से सम्पन्न हैं। मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती, आपका आदि-मध्य अन्त नहीं है। निर्गुण स्वरूप, सृष्टि के आदि भूति व भक्तों के दुखों को नष्ट करने वाले हो। आपको मेरा नमस्कार है।" 


नारदजी ने इस प्रकार की स्तुति। सुनकर विष्णु भगवान बोले, "हे मुनिश्रेष्ठ! आपके मन में क्या है? आपका किस काम के लिये आगमन हुआ है, निःसंकोच कहो।" 


तब नारद मुनि बोले "मृत्युलोक में सब मनुष्य जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं, अपने-अपने कर्मों के द्वारा अनेक प्रकार के दुखों से दुखी हो रहे हैं। हे नाथ! मुझ पर दया रखते हो तो बतलाइये कि उन मनुष्यों के सब दुःख थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते हैं।" श्री भगवान जी बोले, "हे नारद! मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। 


जिस काम के करने से मनुष्य मोह से छूट जाता है वह मैं कहता हूँ, सुनो-बहुत पुण्य देने वाला स्वर्ग तथा मृत्युलोक दोनों में दुर्लभ एक उत्तम व्रत है। आज मैं प्रेमवश होकर तुमसे कहता हूँ। सत्यनारायण का यह व्रत अच्छी तरह विधिपूर्वक करके मनुष्य आयुपर्यन्त यहाँ सुख भोगकर मरने पर मोक्ष को प्राप्त होता है।"


श्री भगवान के वचन सुनकर नारद मुनि बोले कि "उस व्रत का फल क्या है? क्या विधान है और किसने यह व्रत किया है और किस दिन यह व्रत करना चाहिए? विस्तार से कहिये।" भगवान बोले- "दुःख, शोक आदि को दूर करने वाला, धन-धान्य को बढ़ाने वाला, सौभाग्य तथा सन्तान को देनेवाला यह व्रत सब स्थानों पर विजयी करने वाला है। 


भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन मनुष्य श्रीसत्यनारायण की शाम के समय ब्राह्मणों और बंधुओं के साथ धर्मपरायण होकर पूजा करे। भक्तिभाव से नैवेद्य, केले का फल, घी, दूध और गेहूँ का चूर्ण सवाया लेवे। गेहूं के अभाव में साठी का चूर्ण, शक्कर तथा गुड़ ले और सब भक्षण योग्य पदार्थ जमा कराके भगवान के अर्पण कर देवे तथा बंधुओं सहित ब्राह्मणों को भोजन करावे, पश्चात् स्वयं भोजन करे। 


नृत्य, गीत आदि का आचरण कर सत्यनारायण भगवान का स्मरण करता हुआ समय व्यतीत करे। इस तरह व्रत करने पर मनुष्यों की इच्छा निश्चय पूरी होती है। विशेषकर कलि-काल में भूमि पर यही मोक्ष का सरल उपाय है।

सत्यनारायण भगवान की जय


दूसरा अध्याय 

सत्यनारायण भगवान की जय

"हे ऋषियों! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया है सूतजी बोले उसका इतिहास कहता हूँ, ध्यान से सुनो। सुन्दर काशीपुरी नगरी में एक अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था। वह भूख और प्यास से बेचैन हुआ नित्य पृथ्वी पर घूमता था। 


ब्राह्मणों से प्रेम करनेवाले भगवान ने ब्राह्मण को दुःखी देखकर बूढ़े - ब्राह्मण का रूप धर उसके पास जा आदर के साथ पूछा - "हे विप्र! नित्य दुःखी हुआ पृथ्वी पर क्यों घूमता है? हे श्रेष्ठ ब्राह्मण! यह सब मुझसे कहो, मैं सुनना चाहता हूँ।


"ब्राह्मण बोला- मैं निर्धन ब्राह्मण हूँ, भिक्षा के लिए पृथ्वी पर फिरता हूँ । हे भगवन! यदि आप इसका उपाय जानते हो तो कृपा कर कहो।" वृद्ध ब्राह्मण बोला कि "सत्यनारायण भगवान मनवांछित फल देनेवाले हैं। इसलिये हे ब्राह्मण तू उनका पूजन कर जिसके करने से मनुष्य सब दुखों से मुक्त होता है।" 


ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बतलाकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण करनेवाले सत्यनारायण भगवान अन्तर्धान हो गये। जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण ने बतलाया है, मैं उसको करूँगा, यह निश्चय करने पर उसे रात में नींद भी नहीं आई। 


वह सवेरे उठ सत्यनारायण के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिए चला। उस दिन उसको भिक्षा में बहुत धन मिला जिससे बंधु-बांधवों के साथ उसने सत्यनारायण का व्रत किया। 


इसके करने से वह ब्राह्मण सब दुखों से छूटकर अनेक प्रकार की सम्पत्तियों से युक्त हुआ। उस समय से वह ब्राह्मण हर मास व्रत करने लगा। इस तरह सत्यनारायण भगवान के व्रत को जो करेगा वह सब पापों से छूटकर मोक्ष को प्राप्त होगा। 


आगे जो पृथ्वी पर सत्यनारायण का व्रत करेगा वह मनुष्य सब दुःखों से छूट जायेगा। इस तरह नारद जी ने नारायण का कहा हुआ यह व्रत मैंने तुमसे कहा। हे विप्रो! मैं अब और क्या कहूँ। 


ऋषि बोले- हे मुनीश्वर! संसार में इस ब्राह्मण से सुनकर किस-किसने इस व्रत को किया, हम वह सब सुनना चाहते हैं। इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा है। सूत जी बोले- हे मुनियों! जिस-जिसने इस व्रत को किया है वह सब सुनो। 


एक समय ब्राह्मण धन और ऐश्वर्य के अनुसार बंधु-बांधवों के साथ व्रत करने को तैयार हुआ उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा आदमी आया और बाहर लकड़ियों को रखकर ब्राह्मण के मकान में गया। 


प्यास से दुःखी लकड़हारा उनको व्रत करते देखकर ब्राह्मण को नमस्कार कर कहने लगा कि " आप यह क्या कर रहे हैं और इसके करने से क्या फल मिलता है ? कृपा करके मुझसे कहो।" 


ब्राह्मण ने कहा, "सब मनोकामनाओं को पूरा करनेवाला यह सत्यनारायण भगवान का व्रत है, इसकी ही कृपा से मेरे यहाँ धन-धान्य आदि की वृद्धि हुई है।" 


ब्राह्मण से इस व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ। चरणामृत ले और प्रसाद खाने के बाद अपने घर को गया। लकड़हारे ने अपने मन में इस प्रकार का संकल्प किया कि आज ग्राम में लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसीसे सत्यनारायण देव का उत्तम व्रत करूँगा।


यह मन में विचारकर वह बूढ़ा आदमी लकड़ियाँ अपने सिर पर रखकर, जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, वह ऐसे  सुन्दर नगर में गया। उस रोज वहाँ पर उसे उन लकड़ियों का दाम पहले दिनों से चौगुना मिला। 


तब वह बूढ़ा लकड़हारा दाम ले और अति प्रसन्न होकर पक्के केले की फली, शक्कर, घी, दुग्ध, दही और गेहूं का चून इत्यादि सत्यनारायण भगवान के व्रत की कुल सामग्रियों को लेकर अपने घर गया। 


फिर उसने अपने भाइयों को बुलाकर विधि के साथ भगवान जी का पूजन और व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन, पुत्र आदि से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोगकर बैकुण्ठ को चला गया।

सत्यनारायण भगवान की जय

तीसरा अध्याय

सत्यनारायण भगवान की जय

सूतजी बोले—'' हे श्रेष्ठ मुनियों! अब आगे की कथा कहता हूँ, सुनो- पहले • समय में उल्कामुख नाम का एक बुद्धिमान राजा था। वह सत्यवक्ता और जितेन्द्रिय था। प्रतिदिन देव स्थानों पर जाता तथा गरीबों को धन देकर उनके कष्ट दूर करता था। 


उसकी पत्नी कमल के समान मुख वाली और सती साध्वी थी। भद्रशीला नदी के तट पर उन दोनों ने श्री सत्यनारायण का व्रत किया। उस समय में वहाँ एक साधु वैश्य आया। उसके पास व्यापार के लिये बहुत सा धन था। 


वह नाव को किनारे पर ठहरा कर राजा के पास आ गया और राजा को व्रत करते हुए देखकर विनय के साथ पूछने लगा - हे राजन्ः भक्तियुक्त चित्त से यह आप क्या कर रहे -हैं? 


मेरी सुनने की इच्छा है! सो आप यह मुझे बताइये।" राजा बोला - "हे साधु अपने बान्धवों के साथ पुत्रादि की प्राप्ति के लिए महाशक्तिवान सत्यनारायण भगवान का व्रत व पूजन किया जा रहा है।" 


राजा के वचन सुनकर साधु आदर से बोला- "हे राजन्! मुझसे इसका सब विधान कहो, मैं भी आपके कथनानुसार इस व्रत को करूंगा। मेरे भी कोई संतान नहीं है और इससे निश्चय ही होगी।" 


राजा ने सब विधान सुन व्यापार से निवृत्त हो वह आनन्द के साथ घर गया। साधु ने अपनी स्त्री से संतान देनेवाले उस व्रत का समाचार सुनाया और कहा कि जब मेरे सन्तान होगी तब मैं इस व्रत को करूंगा। 


साधु ने ऐसे वचन अपनी स्त्री लीलावती से कहे। एक दिन उसकी स्त्री लीलावती पति के साथ आनन्दित हो सांसारिक धर्म में प्रवृत्त होकर सत्यनारायण भगवान की कृपा से गर्भवती हो गई तथा दसवें महीने में उसके एक सुन्दर कन्या का जन्म हुआ। 


दिनों-दिन वह इस तरह बढ़ने लगी जैसे शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है। कन्या का नाम कलावती रिखा गया। तब लीलावती ने मीठे शब्दों में अपने पति से कहा कि जो आपने संकल्प किया था कि भगवान का व्रत करूंगा अब आप उसे करिये। 


साधु बोला, "हे प्रिये! इसके विवाह पर करूँगा।" इस प्रकार अपनी पत्नी को आश्वासन दे वह नगर  को गया। कलावती पितृ-गृह में वृद्धि को प्राप्त हो गई। साधु ने जब नगर में सखियों के साथ अपनी  पुत्री को देखा तो तुरन्त दूत बुलाकर कहा कि पुत्री के वास्ते कोई सुयोग्य वर देखकर लाओ। 


साधु की आज्ञा पाकर दूत कंचन नगर पहुँचा और वहाँ पर बड़ी खोज और देखभाल कर लड़की के लिए सुयोग्य वणिक पुत्र को ले आया। उस सुयोग्य लड़के को देखकर साधु ने अपने बंधु-बांधवों सहित प्रसन्नचित्त अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया, किन्तु दुर्भाग्य से विवाह के समय भी उस व्रत को करना भूल गया। 


तब श्री भगवान क्रोधित हो गये ष्णु और श्राप दिया कि तुम्हें दारुण दुःख प्राप्त होगा। अपने कार्य में कुशल साधु बनिया जामाता सहित समुद्र के समीप स्थित रत्नपुर नगर में गया और वहाँ दोनों ससुर जमाई चन्द्रकेतु राजा के उस नगर में व्यापार करने लगे। 


एक रोज भगवान सत्यनारायण की माया से प्रेरित कोई चोर राजा का धन चुराकर भागा जा रहा था, किन्तु राजा के दूतों को आता देखकर चोर ने घबराकर भागते हुए राजा के धन को वहीं चुपचाप रख दिया जहाँ वो ससुर जमाई ठहरे हुए थे। 


जब दूतों ने उस साधु वैश्य के पास राजा के धन को रखा देखा तो वे दोनों को बाँधकर ले गये और प्रसन्नता से दौड़ते हुए राजा के समीप जाकर बोले- यह दो चोर हम पकड़ कर लाये हैं, देखकर आज्ञा दें। तब राजा की आज्ञा से उनको कठोर कारावास में डाल दिया और उनका सब धन छीन लिया। 


सत्यनारायण भगवान के श्राप द्वारा उनकी पत्नी भी घर पर बहुत दुःखी हुई और घर पर जो धन रखा था, चोर चुराकर ले गये। शारीरिक व मानसिक पीड़ा तथा भूख-प्यास से अति दुखित  हो अन्न की चिन्ता में कलावती एक ब्राह्मण के घर गई।

 

वहाँ उसने सत्यनारायण भगवान का व्रत होते देखा, फिर कथा सुनी तथा प्रसाद ग्रहण कर रात को घर आई। माता ने कलावती से कहा- हे पुत्री ! अब तक कहाँ रही व तेरे मन में क्या  है? कलावती बोली - हे माता! मैंने एक ब्राह्मण के घर श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत देखा है। 


कन्या के वचन सुनकर लीलावती भगवान के पूजन की तैयारी करने लगी। लीलावती ने परिवार और बंधुओं सहित श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन किया औरवर माँगा कि मेरे पति और दामाद शीघ्र आ जायें।  साथ ही प्रार्थना की कि हम सबका अपराध  क्षमा करो। सत्यनारायण भगवान इस व्रत से सन्तुष्ट हो गये और राजा। 


चन्द्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा- हे राजन! दोनों वैश्यों को प्रातः ही छोड़ दो और उनका सब धन जो तुमने ग्रहण किया है दे दो, नहीं तो मैं तेरा धन, राज्य, पुत्रादि सब नष्ट कर दूंगा। राजा से ऐसे वचन कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये। 


प्रातः काल राजा चन्द्रकेतु ने सभा में अपना स्वप्न सुनाया, फिर दोनों वणिक पुत्रों को कैद से मुक्त कर सभा में बुलाया। दोनों ने आते ही राजा को नमस्कार किया। राजा मीठे वचनों से बोला- हे महानुभावो ! 


भावीवश ऐसा कठिन दुख प्राप्त हुआ है, अब तुम्हें कोई भय नहीं। ऐसा कहकर राजा ने उनको नये-नये वस्त्राभूषण पहनाये तथा उनका जितना धन लिया था, उससे दूना धन देकर आदर सहित विदा किया। दोनों वैश्य अपने घर को चल दिये।

सत्यनारायण भगवान की जय

चौथा अध्याय

सत्यनारायण भगवान की जय

सूतजी बोले - "वैश्य ने मंगलाचार करके यात्रा आरम्भ की और अपने नगर को चला। उनके थोड़ी दूर निकलने पर दण्डी वेषधारी सत्यनारायण ने उनसे पूछा " हे साधु! तेरी नाव में क्या है?" अभिमानी वणिक हँसता हुआ बोला, "हे दण्डी! आप क्यों पूछते हो ? क्या धन लेने की इच्छा है? 


मेरी नाव में तो बेल और पत्ते भरे हैं।" वैश्य का कठोर वचन सुनकर भगवान ने कहा- "तुम्हारा वचन सत्य हो।" दण्डी ऐसा कहकर वहाँ से दूर चले गये और कुछ दूर जाकर समुद्र के कितने बैठ गये। दण्डी के जाने पर वैश्य ने नित्यक्रिया करने के बाद नाव को ऊँची उठी देखकर अचम्भा किया और नाव में बेल-पत्ते आदि देखकर मूर्छित हो जमीन पर गिर पड़ा। 


फिर मूर्छा खुलने पर अत्यन्त शोक प्रकट करने लगा। तब उसका दामाद बोला कि आप शोक न करें, यह दण्डी का श्राप है। अतः उनकी शरण में चलना चाहिए, तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी। दामाद के वचन सुन वह दंडी के पास पहुँचा और अत्यन्त भक्तिभाव से नमस्कार करके बोला- "मैंने जो आपसे असत्य वचन कहे थे उनको क्षमा करो।" ऐसा कहकर महान शोकातुर हो रोने लगा। 


तब दंडी भगवान बोला- "हे वणिक पुत्र ! मेरी आज्ञा से बार बार तुम्हें दुःख प्राप्त हुआ है, तू मेरी पूजा से विमुख हुआ।" साधु बोला- हे भगवन! आपकी माया से मोहित ब्रह्मा आदि भी आपके रूप को नहीं जानते, तब मैं अज्ञानी कैसे जान सकता हूँ? 


आप प्रसन्न होइये, मैं सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूँगा, मेरी रक्षा करो और पहले के समान नौका में धन भर दो। उसके भक्तियुक्त वचन सुनकर भगवान प्रसन्न हो उसकी इच्छानुसार वर देकर अन्तर्धान हो गये। तब उन्होंने नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है फिर वह भगवान सत्यनारायण का पूजन कर साथियों सहित अपने नगर को चला। 


अब अपने नगर के निकट पहुँचा तब दूत को घर भेजा। दूत ने साधु के घर जा उसकी स्त्री को नमस्कार कर कहा कि साधु अपने दामाद सहित इस नगर के समीप आ गये हैं। ऐसा वचन सुन साधु की स्त्री ने बड़े हर्ष के साथ सत्यदेव का पूजन कर पुत्री से कहा- मैं अपने पति के दर्शन को जाती हूँ तू कार्य पूर्ण कर शीघ्र आ माता के ऐसे वचन सुनकर कलावती प्रसाद छोड़कर पति के पास गई। 


प्रसाद की अवज्ञा के कारण सत्यदेव ने रुष्ट हो, उसके पति को नाव सहित पानी में डुबो दिया। कलावती अपने पति को न देखकर रोती हुई जमीन पर गिर गई। इस तरह नौका को डूबा हुआ! तथा कन्या को रोता देख साधु दुखित हो बोला- हे प्रभु मुझसे या मेरे परिवार से जो भूल हुई है. उसे क्षमा करो। 


उसके दीन वचन सुनकर सत्यदेव प्रसन्न हो गये और आकाशवाणी हुई है साधु तेरी कन्या मेरे प्रसाद को छोड़कर आई है इसलिए इसका पति अदृश्य हुआ है, यदि वह घर जाकर प्रसाद खाकर लौटे तो इसे पति अवश्य मिलेगा। 

ऐसी आकाशवाणी सुनकर कलावती ने घर पहुँचकर प्रसाद खाया। 


फिर आकर पति के दर्शन किये तत्पश्चात् साधु ने बंधु-बांधवों सहित सत्यदेव का विधिपूर्वक पूजन किया। उस दिन से वह पूर्णिमा को सत्यनारायण का पूजन करने लगा। फिर इस लोक का सुख भोगकर अन्त में स्वर्गलोक को गया।

सत्यनारायण भगवान की जय

पाँचवा अध्याय 

सत्यनारायण भगवान की जय

सूतजी बोले- हे ऋषियों! मैं और भी कथा कहता हूँ, सुनो। प्रजापालन में लीन तुंगध्वज नाम का एक राजा था। उसने भी भगवान का प्रसाद त्यागकर बहुत दुख पाया। एक समय वन में जाकर वन्य पशुओं को मारकर बड़ के पेड़ के नीचे आया,वहीं उसने ग्वालों को भक्ति भाव से बांधवों सहित सत्यनारायणजी का पूजन करते देखा। 


राजा देखकर भी अभिमान वश वहाँ नहीं गया और न नमस्कार ही किया। जब ग्वालों ने भगवान का प्रसाद उसके सामने रखा तो वह प्रसाद को त्यागकर अपनी सुन्दर नगरी को चला। वहीं उसने अपना सब कुछ नष्ट पाया तो 

वह जान गया कि यह सब भगवान ने किया है। 


तब वह विश्वास कर ग्वालों के समीप गया और विधिपूर्वक पूजन कर प्रसाद खाया तो सत्य देव की कृपा से पहले जैसा था, वैसा ही हो गया फिर दीर्घकाल तक सुख भोगकर मरने पर स्वर्गलोक को गया। जो मनुष्य इस परम दुर्लभ व्रत को करेगा भगवान् की कृपा से उसे धन-धान्य की प्राप्ति होगी। निर्धन धनी और बन्दी बंधन से मुक्त होकर निर्भय हो जाता है। 


सन्तानहीनों को संतान प्राप्ति होती है तथा सब मनोरथ पूर्ण होकर अंत में बैकुण्ड धाम को जाता है। जिन्होंने पहले इस व्रत को किया अब उनके दूसरे जन्म की कथा कहता हूँ। वृद्ध शतानन्द ब्राह्मण ने सुदामा का जन्म लेकर मोक्ष को पाया। उल्कार्मुख नाम का राजा दशरथ होकर बैकुण्ठ को प्राप्त हुआ। 


साधु नाम के वैश्य ने मोरध्वज बनकर अपने पुत्र को आरे से चीरकर मोक्ष को प्राप्त किया। महाराज तुंगध्वज ने स्वयं भू होकर भगवान में भक्ति युक्त कर्म कर मोक्ष प्राप्त किया।

सत्यनारायण भगवान की जय

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