मेषा ऋषि का राजा सुरथ और समाधि को भगवती की महिमा बताते हुए मधु कैटभ वध का प्रसंग सुनाना
मार्कण्डेय जो कहते हैं कि सूर्य के पुत्र सावर्णि [ सूर्य की छाया से उत्पन्न ] जिनको आठवां मनु कहते हैं, उनकी उत्पत्ति सुनो-मैं विस्तार के साथ कहता हूं। सूर्य का पुत्र भाग्यशाली सावणि महा माया की कृपा से जैसे मन्वन्तर का स्वामी हुआ वह भी सुनो-स्वारीचिप मन्वन्तर के मध्य सारे भूमण्डल पर चैत्रवंशी सुरथ नामक राजा थे, ये अपनी प्रजा को पुत्रोंके समान पालन करते थे, उसी समय कोला- विध्वंसी राजा इनके शत्रु हो गए। महाराज सुरथ के साथ इनका युद्ध हुआ। राजा सुरथके पाससेना अधिक थी किन्तु फिर भी ये युद्धमें हार गए।
अपने प्रबल शत्रुओं द्वारा हारा हुआ राजा वापिस आकर अपने नगर में राज्य करने लगा वहां भी उस दुर्बल राजा का खजाना व बल दुष्ट मन्त्रियों ने हरण कर लिया। राज्यसे हटाए गए राजा सुरथ शिकार के बहाने अकेले घोड़े पर चढ़ कर वन को चले गए। उस वन में राजा ने अहिंसक पशुओं से भरभूर तथा शिष्यों से शोभायमान महर्षि मेधा का आश्रम देखा । राजा उस मुनि के आश्रम में ठहरा, वहाँ मुनि ने उसका यथोचित सत्कार किया। नगर की ममता के आकर्षण से राजा सोचने लगा। कि मेरे पूर्वजों का पाला हुआ नगर मुझसे छीन लिया, दुष्ट प्रजा का धर्मपूर्वक पालन करते हैं या नहीं, मेरा बलवान हाथी शत्रुओं के चंगुल में फंसकर न जाने कैसा कष्ट भोग रहा होगा, जो प्रसन्नता, भोजन तथा धन द्वारा मेरे अनुचर थे वे अब दूसरों की सेवा करते होंगे।
मेरा कष्ट से इकठ्ठा किया हुआ धन अपव्ययी नौकरों द्वारा बेकार के कामों में खर्च होने से समाप्त हो गया होगा। इस तरह की चिंतायें राजा को सताने लगीं । राजा ने आश्रम के निकट एक वैश्यको देखा और पूछा कि तुम कौन हो आपके यहां आने का क्या कारण है ? तुम शोक से दुःखी दिखाई पड़ते हो । राजा के नम्र वचन सुनके वैश्य विनयपूर्वक बोला- मैं धनिक कुल में उत्पन्न हुआ हू । मेरा नाम समाधि है, मेरे दुश्चरित्र पुत्र और पुत्र बंधुओं ने धन के लोभ से मेरा धन छीन कर सुभे निकाल दिया है। इसलिए मैं वन में चला आया हूं अपने परिवार के आचरण व सुख-दुःख के विषयमें अब तक कोई समाचार नहीं मिला, मेरे पुत्र सदाचार में रत हैं या दुराचार में लगे हैं. यह कुछ नहीं जानता ।
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राजा बोला - जिन धन के लोभी पुत्र, स्त्री आदिने तुम्हें घर से निकाल दिया है, उनके प्रति अभी तक आपके हृदय मे प्रेम क्यों है ? वैश्य ने कहा-आपने जैसा कहा वैसा ही मेरे मनमें भी आता है फिर भी क्या करू मेरे हृदय में उन धन लोभियों के लिए निष्ठुरता नहीं आती। जिस परिवार ने अपने पिता तथा सर्वस्व को त्याग दिया है उसमें मेरा मन क्यों फंसा है मैं जानता हुआ भी इस रहस्य को नहीं समझ पाता, उन मे दुराचारियों में मेरा मन फंसा है, पर क्या करू उन हृदय हीनों के लिए भी मेरा मन निष्ठुर नहीं होता । मार्कण्डेयजी बोले-हे विप्र ! राजा और वैश्य दोनों ही मुनि के पास गए और नमस्कार करके दोनों बैठ गए। राजा बोला- भगवन मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, वह मुझे बताने की कृपा करें।
मेरा मन वश में न होने से कष्ट होता है । छूटे हुए नौकर-चाकर खजाने आदि की मुझे चिंता नहीं है और यह जानते हुए भी वह मेरे नहीं हैं, एक अज्ञानी की तरह मुझे उनसे मोह है। और यह समाधि वैश्य भी पुत्र, स्त्री आदि अपने परिवार द्वारा निकाला हुआ है किन्तु इसका भी मन उन्हीं में फंसा है। इस तरह हम दोनों अत्यन्त दुःखी हैं। उनके दोपाको जानते हुए भी हम क्यों फंसे हैं। विवेकहीन पुरुषों जैसी मूढ़ता मुझमें तथा इस वैश्य में किस कारण है ?
ऋषि बोले-जैसे विषय सामने आते हैं वैसा ही समस्त प्राणियों को ज्ञान होता है। हे महाभाव ! विषय सबके लिए अलग-२ हैं, कोई प्राणी दिन में अन्धे हैं, कोई रात्रिमें और कुछ की दृष्टि दिन और रात्रि में एक ही है, ये सच है कि मनुष्यों को ज्ञान है किन्तु उन्हें ही है, पशु-पक्षी सभी ज्ञान रखते हैं। जो पशुपक्षियों का ज्ञान है वही मनुष्यों का ज्ञान है । जो मनुष्यों का ज्ञान है वही पशु आदि में है यह ज्ञान होने पर भी कि बच्चों का पेट भरने से हमारी भूख नहीं मिटेगी, इन पक्षियों को देखो कि अपने बच्चों की चोंच में मोह वश स्वयं क्षुधा में पीड़ित होते हुए भी अनाज के दाने डालते हैं। मनुष्य भी उपकार की आशा से पत्रों का मोह करते हैं।
क्या तुम यहनहीं देखते होकि संसार पालक विष्णु की महामाया के प्रभाव से मनुष्य ज्ञानवान होने परभी मोह माया में फंसे रहते हैं। इसमें कुछ आश्चर्य की बात नहीं क्योंकि जगत्पति भगवान विष्णु को योगनिन्द्रा महामाया में सम्पूर्ण जगत मोहित है। यह चराचर जगतको उत्पन्न करने वाली भगवती ज्ञानी पुरुषों के मनको भी मोह में फंसा देती है । वही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान स्वरूप, मुक्ति देने वाली भगवती है जो प्रसन्न होकर वरदान देतो है। वह भगवती संसार बन्धन का कारण और सब ईश्वरों की स्वामिनी है।
यह सुनकर राजा सुरथ ने पूछा-भगवन! आप जिसे महामाया कहते हैं, वह भगवती कौन है ? वह कैसे उत्पन्न हुई और उसके क्या कर्म हैं ? हे ब्रह्मन ! मैं उसकी स्वरूप, उत्पत्ति और स्वभाव आपसे सुनना चाहता हूँ । ऋषि ने कहा कि वह भगवती नित्या जगत मूर्ति है, यह सम्पूर्ण जगत उसी का बना हुआ है । फिर भी भक्तों के हित के लिए अनेक प्रकार से उसकी उत्पत्ति हुई है। वह मैं कहता हूं सुनो-जब देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए वह उत्पन्न होती है तब नित्या होने पर पर भी वह उत्पन्ना कहलाती है कल्प के अन्त में जब जगत जलमय हो गया और विष्णु भगवान शेष शय्या पर सो गए तब उनके कान के मैलसे मधु और कैटभ नाम के दो भयानक असुर उत्पन्न होकर ब्रह्मा को मारने दौड़े।
विष्णु भगवान की नाभि में फूले हुए कमल पर बैठे हुए ब्रह्मा ने उन दोनों उग्र असुरों को देखकर और जनार्दन विष्णु को सोया हुआ जानकर, उनको जगाने के लिए, उनके नेत्रों में जो योग-निद्रा विश्वेश्वरी, जगद्वात्री, संसार की स्थिति और नाश करने वाली विष्णु भगवान के तेज की अनुपम शक्ति निंद्रा रूपी भगवती की इस प्रकार स्तुति की।
ब्रह्माजी बोले- हे भगवती ! तुम स्वाह, स्वधा, व पट्- कार रूपिणी हैं, आप स्वर स्वरूपिणी हैं। और अमृतरूप हैं नित्य अक्षरों में हस्व, दीर्घ और लुप्त स्वरूप स्थिति हो. आप नित्य अर्धमात्रा में स्थित हैं। जिससे विशेषकर कोई उच्चारण नहीं कर सकता। वे आप ही हैं आप सवोपरि माता हैं, आप ही सारे विश्व को धारण और उत्पन्न करती हैं। आप ही पालन और नाश करने वाली हैं। रचना के समय सृष्टि रूपी तथा पालन के समय स्थिति रूपी हैं और हे जगन्मत्रे ! अन्त में इस संसार को आप ही संहार करती हैं। आप महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महा- मोहा, महादेवी, महासुरी हैं। और सारे विश्व की सत्य, रज, तप, रूप त्रिगुणमयी प्रकृति भी आप ही हैं।
भयावनी कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि आपही हैं आप श्री ईश्वरा, ही और ज्ञानलक्षण बुद्धि हैं । लज्जा पुष्टि तुष्टि, शान्ति और क्षान्ति भी आप ही हैं । खडग, शूल, और गदा और वज्र धारण करने वाली हो। शंख, धनुष, बाण, भुशुण्डी धारण कर रही हो। सौम्या सौम्यतरा हो अर्थात सब वस्तुसे बढ़कर सुन्दरी हो । आप देवोंमें सर्वो- परि हो । हे अखिलात्मिके ! संसार की सत् असत् वस्तुओं की शक्ति आप ही हैं और क्या स्तुति करें, आपने संसार के निर्माता, पोषक और विनाशक भगवान विष्णु को भी निंद्रा के वश में कर दिया है। इसलिए आपकी स्तुति करने में कौन समर्थ है? मुझे और विष्णु को आपने शरीर धारण कराया है इसलिए स्तुति करने की किसकी सामर्थ्य है। हे देवी! आपके ऐसे उदय प्रभावके द्वारा ही आपकी स्तुति होती है । हे देवी आप इन मधुकैटभ असुरोंको मोहके वशमें करो और इन राक्षसोंको मारनेके लिए उन्हें प्रेरित कीजिए ।
ऋषि बोले- जब ब्रह्माजी ने महाकाली तामसी देवी की यह स्तुति की, तब वह महामाया विष्णु भगवान को जगाने के लिए भगवान की छाती से निकलकर ब्रह्माजी के मुखके सामने खड़ी हो गई और योगनिद्रा से मुक्त होकर भगवान विष्णु उठ बैठे । विष्णु भगवान ये देखकर उन दोनों से युद्ध करने लगे। इस प्रकार उन राक्षसों से भगवान विष्णु का पांच हजार वर्ष तक युद्ध हुआ। इसके बाद बल से उन्मत्त मधु कैटभ महामाया से मोहित होकर बोले-कि वर मांगो ।
भगवान बोले-यदि तुम मुझसे सन्तुष्ट होतो तुम दोनों मेरे हाथों से मारे जाओ। यही मेरा वर है । भाषि-हे राजन! जब से दोनों वचनवत्र हो गए ती सारे संसार की जलमय देखकर उन दोनों ने कमल नेत्र भगवान से कहा- जहां भ्रमि जलमय न हो वहां हमको मारो विष्णु ने कहा- ऐसा ही होगा' कहकर जंघा पर दोनोंके सिर रख चक से काट डाले। इस देवी का और प्रभाव सुनो-में तुमसे कहता है।
इस प्रकार 'मधुकेट बघ’ नामक पहला अध्याय समाप्त हुथा।
Shri Durga Saptashati second chapter श्री दुर्गा सप्तशती द्वितीय अध्याय Spiritual RAGA