पापमोचनी एकादशी पिशाच योनि को दूर करने वाली, कामना और सिद्धि को देने वाली, पापों को दूर करने वाली, शुभ फल और धर्म को देने वाली हैं।
(पापमोचनी एकादशी (चैत्र कृष्णा) व्रत कथा) |
चैत्र कृष्णा पक्ष की एकादशी का क्या नाम है?
चैत्र कृष्णा पक्ष की एकादशी का नाम है: पापमोचनी एकादशी।
पापमोचनी एकादशी कौन से महीने में आते है?
पापमोचनी एकादशी का व्रत कब आता है?
पापमोचनी एकादशी का व्रत, चैत्र महीने की कृष्णापक्ष को आता है।
पापमोचनी एकादशी का व्रत कैसे करे?
एकादशी के दिन प्रातःकाल स्नान करे, विधिपूर्वक पूजन करें, सारा दिन बिना कुछ खाए भगवान का किरतान करे।
एकादशी का व्रत कितना उत्तम माना जाता है?
खेत में तिल बोने से जितनी संख्या में तिल पैदा होते है। उतने हजार वर्ष तक वह मनुष्य स्वर्ग में निवास करता है। यह व्रत पापों को दूर करने वाला है।
कथा:
प्राचीन समय में बसन्त ऋतु में कुबेर का चैत्ररथ नाम का वन फूलों से सुशोभित था। वहां गन्धर्वों की कन्या किन्नरों के साथ विहार करती थीं। इन्द्रादि देवता भी वहां क्रीड़ा करते थे। चैत्ररथ वन से सुन्दर कोई दूसरा वन नहीं था, उस वन में मुनि लोग तपस्या करते थे, वहां मेधावी नाम के मुनि भी निवास करते थे, वहां अप्सराओं ने मुनि को मोहित करने का प्रयत्न किया। मंजुघोषा नाम की अप्सरा प्रयत्न करने लगी।
मंजुघोषा कामदेव की स्त्री के समान थी। मेधावी ऋषि को देखकर वह उनसे प्रभावित हो जाती है। यौवन के सुन्दर शरीर वाले श्वेत यज्ञोपवीत धारण करने वाले मेधावी ऋषि भी दूसरे कामदेव के समान सुशोभित हो रहे थे। मंजुघोषा ऋषियों से दूर खड़ी थीं। जंगल उसकी चूड़ियों की गड़गड़ाहट और नूपुरों की खनखनाहट से गूँज उठा। हाव भाव सहित गाती हुई अप्सरा को देखकर मुनीश्वर भी काम के वशीभूत हो गये। मंजुघोषा आकर मुनि से लिपट गई। उसके सुन्दर शरीर के देखकर वह मुनीश्वर भी उसके साथ वन में रमण करन लगे। मेधावी मुनि शिवतत्व को भूल कर कामदेव के वशीभूत हो गये। मंजुघोषा के साथ रमण करते हुए मुनि को दिशा और दिन-रात का ध्यान नहीं रहा, मुनीश्वर को भोग विलास में बहुत समय बीत गया। तब मंजुघोषा ने स्वर्गलोक जाने का विचार किया। चलते समय वह स्मरण करते हुए मुनि से बोली, "मुझे अपने घर जाने के लिए आज्ञा दीजिए।" मेधावी बोले, "हे सुन्दर मुख वाली! तू आज संध्या को आई है। प्रातःकाल तक तू मेरे पास निवास कर।" मुनि के इन वचनो को सुनकर वह रुक गई। फिर सत्तावन वर्ष नौ महीने तीन दिन व्यतीत हो गये। इतना समय बीतने पर अप्सरा मुनि से फिर बोली, "हे ब्राह्मन्! मुझको घर जाने की आज्ञा दीजिए।" मेधावी बोले, "अभी तो सवेरा हुआ है, मेरी बात सुनो जब तक मैं संध्या करूं, तब तक तुम यहाँ ठहरो।" मुनि के इस बचन को सुनकर वह डर गई, फिर मुस्करा कर विस्मित होकर बोली, "विपेन्द्र! आपकी संध्या का कितना प्रमाण है? वह समाप्त हुई कि नहीं मेरे ऊपर कृपा करके गये हुए समय का विचार करिये।" अप्सरा के इस वाक्य को सुनकर मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ। ब्राह्मण ने हृदय में ध्यान करके समय का अनुमान कर लिया और बोले, "हे सुन्दरी! तेरे साथ सत्तावन वर्ष बीत गये।" तप को बिगाड़ने वाली अप्सरा को काल के समान देखकर क्रोंध से मुनि के होठ काँपने लगे और बोले, "तू पिशाचिनी हो जा। हे पापिन! तुझको धिक्कार है।" मुनि के श्राप से दुग्ध, सुन्दर भृकुटी वाली अप्सरा नम्र होकर मुनि से प्रर्थना करने लगी, "हे विप्र! आपके साथ मुझको बहुत से वर्ष बीत गये। इस कारण हे स्वामिन्! मेरे ऊपर कृपा करिये।" मुनि बोले, "हे भद्रे ! मैं क्या करूं? तुमने मेरा बड़ा भारी तप नष्ट कर दिया है। तथापि मैं तुमको श्राप दूर होने का उपाय बतलाता हूँ उसे सुनो। चैत्र कृष्णपक्ष में सब पापों को नाश करने वाली पापमोचनी नाम की शुभ एकादशी होती है। हें भद्रे ! उसका व्रत करने से पिशाच योनि छूट जाती हैं।" यह कहकर वह मेधावी, पिता के आश्रम में चले गये। मेधावी को आया हुआ देखकर च्यवन ऋषि बोले, "हे पुत्र ! तूने यह क्या किया? सब तपस्या को नष्ट कर दिया।"