शनि त्रयोदशी (प्रदोष) व्रत-कथा Shani Trayodashi (Pradosh) Vrat Katha Spiritual RAGA

Shani Pradosh Vrat Katha,

गर्गाचार्यजी ने कहा- हे महामते! आपने शिव शंकर को प्रसन्न करने हेतु समस्त प्रदोष व्रत का वर्णन किया। अब हम शनि प्रदोष की विधि सुनने की इच्छा रखते हैं, मो कृपा करके सुनाइये। सूतजी बोले- हे ऋषियों निश्चित रूप से आपका शिव-पार्वती के चरणों में अत्यन्त प्रेम है, मैं आपको शनि त्रयोदशी के व्रत की विधि बतलाता हूँ, सो ध्यान से सुनें। प्राचीन कथा है कि एक निर्धन ब्राह्मण की खी दरिद्रता से दुःखी हो शांडिल्य ऋषि के पास जाकर बोली- हे महामुने! मैं अत्यन्त दुःखी हूँ, मेरे दुःख निवारण का उपाय बतलाइये। 

मेरे दोनों पुत्र आपकी शरण में हैं। मेरे ज्येष्ठ पुत्र का नाम धर्म है, जो कि राजपुत्र है और लघु का नाम शुचिव्रत है। हम दरिद्री हैं। आप ही हमारा उद्धार कर सकते हैं, इतनी बात सुन ऋषि ने शिव प्रदोष व्रत करने के लिए कहा, तीनों प्राणी प्रदोष व्रत करने लगे। कुछ समय पश्चात् प्रदोष व्रत आया तीनों ने व्रत का संकल्प लिया। छोटा लड़का जिसका नाम शुचिव्रत था एक तालाब पर स्नान करने को गया तो उसे मार्ग में स्वर्ण कलश धन से भरपूर मिला, उसको लेकर वह घर आया, प्रसन्न हो माता से कहा कि माँ यह धन मार्ग में प्राप्त हुआ है, माता ने धन देखकर शिवमहिमा का वर्णन किया। 


राजपुत्र को अपने पास बुलाकर बोली- देखो, पुत्र! यह धन हमें शिवजी की कृपा से प्राप्त हुआ है, अतः प्रसाद के रूप में दोनों पुत्र आधा- आधा बाँट लो, माता का वचन सुन राजपुत्र ने शिव-पार्वती का ध्यान किया और बोला- पूज्या! यह धन आपके पुत्र का ही है, मैं इसका अधिकारी नहीं हूँ। मुझे शंकर भगवान् और पार्वती माता जब देंगे तब लूँगा। इतना कहकर राजपुत्र शंकरजी की पूजा में लग गया, एक दिन दोनों भाइयों का प्रदेश भ्रमण का विचार हुआ। 


वहाँ अनेक गन्धर्व कन्याओं को क्रीड़ा करते हुए देख शुचिव्रत ने कहा- भैया! अब हमें इससे आगे नहीं जाना है, इतना कह शुचिव्रत उसी स्थान पर बैठ गया, परन्तु राजपुत्र अकेले ही खियों के बीच जा पहुँचा। वहाँ एक अति सुन्दरी स्त्री राजकुमार को देख मोहित हो गई और राजपुत्र के पास पहुँचकर अपनी सखियों से कहने लगी, कि हे सखियों इस वन के समीप ही जो दूसरा वन है, तुम वहाँ जाकर देखो भाँति-भाँति के पुष्प खिले हैं, बड़ा सुहावना समय है, उसकी शोभा देखकर आओ, मैं यहाँ बैठती हूँ, मेरे पैर में बहुत पीड़ा है। 


ये सुन सब सखी दूसरे वन में चली गयीं। वह सुन्दरी राजकुमार की ओर देखती रही। इधर राजकुमार भी उसे कामुक दृष्टि से निहारने लगा, युवती बोली- आप कहाँ रहते हैं? वन में कैसे पधारे? किस राजा के पुत्र है? क्या नाम है? राजकुमार बोला- मैं विदर्भनरेश का पुत्र हूँ, आप अपना परिचय दें, युवती बोली- मैं विद्वविक नामक गन्धर्व की पुत्री हूँ, मेरा नाम अंशुमती है। मैंने आपकी मनःस्थिति को जान लिया है, कि आप मुझ पर मोहित हैं, विधाता ने हमारा तुम्हारा संयोग मिलाया है। युवती ने मोतियों का हार राजकुमार के गले में डाल दिया। 


राजकुमार हार स्वीकार करते हुए बोला कि हे भद्रे! मैने आपका प्रेमोपहार स्वीकार कर लिया है, परन्तु मैं निर्धन हूँ। राजकुमार के इन वचनों को सुनकर गन्धर्वकन्या बोली कि में जैसा कह चुकी हूँ वैसा ही करूंगी, अब आप अपने घर जायें। इतना कहकर गन्थर्वकन्या सखियों से जा मिली। घर जाकर राजकुमार ने शुचिव्रत को सारा वृत्तांत सुनाया।


जब तीसरा दिन आया, वह राजपुत्र शुचिव्रत को लेकर उसी वन में जा पहुंचा, वहीं गन्धर्वराज अपनी कन्या को लेकर आ पहुंचा। इन दोनों राजकुमारों को देख आसन दे कहा कि मैं कैलास पर गया था, वहाँ शंकरजी ने मुझसे कहा कि धर्मगुप्त नाम का राजपुत्र है, जो इस समय राज्यविहीन और निर्धन है, मेरा परम भक्त है, हे गन्धर्वराज! तुम उसकी सहायता करो। मैं महादेवजी की आज्ञा से इस कन्या को आपके पास लाया हूँ। 


आप इसका निर्वाह करें। मैं आपकी सहायता कर राजगद्दी पर बिठा दूँगा। इस प्रकार कहकर की प्रदोष (त्रयोदशी व्रत कथा) गन्धर्वराज ने कन्या का विधिवत् विवाह कर दिया, विशेष धन और सुन्दर गन्धर्व- कन्या को पाकर राजपुत्र अति प्रसन्न हुआ। भगवत्कृपा से अपने शत्रुओं का दमन कर के राज्य का सुख भोगने लगा।

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