यह अपरा एकादशी बहुत पुराय देने वाली, बड़े-बड़े पापों को कष्ट देने वाली है। जो अपरा एकादशी का व्रत करते हैं वे संसार में प्रसिद्ध हो जाते हैं। सब पाप अपरा के व्रत करने से नष्ट हो जाते हैं। झूठी गवाही देने वाले, झूठी प्रशंसा करने वाले, कम तोलने वाले, मिथ्या वेद पाठी कपटी वैद्य ये सब नरक गामी होते हैं परन्तु अपरा के सेवन करने से ये पाप छूट जाते हैं जो क्षत्रिय युद्ध से भाग जाता है, वह घोर नरक में पड़ता है।
(अपरा एकादशी (ज्येष्ठ कृष्णा) व्रत कथा) |
ज्येष्ठ कृष्णा पक्ष की एकादशी का क्या नाम है?
ज्येष्ठ कृष्णा पक्ष की एकादशी का नाम है: अपरा एकादशी।
अपरा एकादशी कौन से महीने में आते है?
अपरा एकादशी मई-जून में आते है।
अपरा एकादशी का व्रत कब आता है?
अपरा एकादशी का व्रत, ज्येष्ठ महीने की कृष्णापक्ष को आता है।
अपरा एकादशी का व्रत कैसे करे?
एकादशी के दिन प्रातःकाल स्नान करे, विधिपूर्वक पूजन करें, सारा दिन बिना कुछ खाए भगवान का किरतान करे।
एकादशी का व्रत कितना उत्तम माना जाता है?
कार्तिक की पूर्णिमा को तीनों पुष्कर में स्नान करने से, काशी में शिवरात्रि का व्रत करने से जो फल मिलता है वह गया में पिंडदान करने से, सिंह राशि के वृहस्पति गोमती नदी में स्नान करने से, कुम्भ में केदारनाथ के दर्शन से और बद्रीकाश्रम की यात्रा और उस तीर्थ का सेवन करने से, सूर्य ग्रहण में कुरुक्षेत्र में हाथी, घोड़ा और स्वर्ग का दान करने से और यज्ञ में सुवर्ण का दान करने से जो मिलता है, वही फल मनुष्य को अपरा का सेवन करने से मिलता है।
अर्द्ध प्रसूता गौ, सुवर्ण और पृथ्वी दान करने से जो फल मिलता है, वही फल मनुष्य को अपरा एकादशी का व्रत करने से मिलता है, यह पाप रूपी वृक्ष को कांटने के लिए कुल्हाड़ी और पाप रूपी ईंधन को जलाने के लिए अग्नि के समान है। पाप रूपी अन्धकार के लिए सूर्य और पाप रूपी हिरन के लिए सिंह के समान है। पाप से डरे हुए मनुष्य को अपरा एकादशी का उपवास करना चाहिये।
जो एकादशी का व्रत नहीं करते वे मनुष्य जल में बबूले के समान और जानवरों में भुनगे के समान हैं। वे मरने के लिए ही संसार में जन्म लेते हैं। अपरा एकादशी का व्रत और वामनदेव जी की पूजा करके मनुष्य सब पाप से छूटकर विष्णु लोक को जाते हैं। इसके पढ़ने सुनने से सब पाप छूट जाते हैं।
कथा:
प्राचीन काल में महीध्वज नामक एक धर्मात्मा राजा था। वो अपने प्रजा की सेवा अपने पुत्र की सामान करता था। मगर उसका छोटा भाई वज्रध्वज बड़ा ही क्रूर, अधर्मी तथा अन्यायी था। वह अपने बड़े भाई से द्वेष रखता था।
उस पापी ने एक दिन रात्रि में अपने बड़े भाई की हत्या करके उसकी देह को एक जंगली पीपल के नीचे गाड़ दिया। इस अकाल मृत्यु से राजा प्रेतात्मा के रूप में उसी पीपल पर रहने लगा और अनेक उत्पात करने लगा।
आसपास के लोगों को वो बहुत तंग करता था। लोग उससे बहुत परेशान थे। एक दिन अचानक धौम्य नामक ऋषि उधर से गुजरे। उन्होंने प्रेत को देखा और तपोबल से उसके अतीत को जान लिया। अपने तपोबल से प्रेत उत्पात का कारण समझा। जब ऋषि ने उसकी मरने का कारण समझा तो उसे इस प्रेत योनि से मुक्ति करवाने का उपाए लोगों को बताया।
ज्येष्ठ महीने की कृष्णा पक्ष में अपरा (अचला) एकादशी का व्रत करना होगा। अपरा एकादशी का व्रत और वामनदेव जी की पूजा करके मनुष्य सब पाप से छूटकर विष्णु लोक को जाते हैं। सब लोगों ने ऋषि की बात मन कर यह व्रत किया और उसे अगति से छुड़ाने को उसका पुण्य प्रेत को अर्पित कर दिया।
इस पुण्य के प्रभाव से राजा की प्रेत योनि से मुक्ति हो गई। वह ऋषि को धन्यवाद देता हुआ दिव्य देह धारण कर पुष्पक विमान में बैठकर स्वर्ग को चला गया।