पापों को दूर करने वाली, पुण्यों को बढ़ाने वाली, बुद्धिमानों को मोक्ष देने वाली प्रबोधनी एकादशी है। भागीरथी गंगा पृथ्वी पर तभी तक गर्जती हैं जब तक पापों को नाश करने वाली कार्तिक में प्रबोधन एकादशी नहीं आती। तीर्थ, समुद्र, सरोवर तभी तक गर्जते हैं, जब तक कार्तिक की प्रबोधिनी एकादशी नहीं आती।
कार्तिक शुक्लपक्ष की एकादशी का क्या नाम है?
कार्तिक शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम है: प्रबोधिनी एकादशी।
एकादशी का व्रत कितना उत्तम माना जाता है?
हजार अश्वमेध और सौ राजसूय यज्ञ का फल मनुष्य को प्रबोधिनी के उपवास से मिलता है। एक बार से एक जन्म का पाप, सायंकाल भोजन करने से दो जन्म के पापों और उपवास से सात जन्म के पापों का नाश होता है। सुमेरू और मंदराचल पर्वत के समान पापों को भी यह एकादशी भस्म कर देती है। हजारों पूर्व जन्मों के लिए हुए दुष्कर्मों को जागरण करने से रुई के ढेर की तरह प्रबोधनी एकादशी जला देती है ।
जो स्वभाव से विधिपूर्वक प्रबोधनी एकादशी का उपवास करता है उसको जैसा फल कहा है। वैसा ही प्राप्त होता है। व्रत को बिगाड़ने वाला, जो अधम ब्राह्मण पर स्त्री गमन करता है उसके सन्तान नहीं होती। जो गुरु और ब्राह्मणों को अहंकार दिखलाता है उसका पुण्य शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और धन सन्तान नहीं होती। जो नीच मनुष्य साधुओं का अपमान करके प्रसन्न होते हैं और जो अपमान करने वालों को नहीं रोकते वे अपने कुल का नाश देखते हैं।
इसलिए जिससे संसार में निन्दा हो ऐसा कोई बुरा काम नहीं करना चाहिये। अच्छे कर्म करने चाहिए जिससे धर्म नष्ट न हो जो कोई अपने मन में ये सोचते हैं कि हम प्रबोधन का व्रत करेंगे तो ऐसा विचार करने से ही उनके सौ जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। जो कोई प्रबोधनी की रात्रि को जागरण करता है, वह बीते हुए, वर्तमान और भविष्य के दस हजार कुल को विष्णु लोक में पहुँचा देता है ।
सब तीथों में स्नान करने और गौ, सुवर्ण पृथ्वी का दान करने से फल नहीं मिलता जो एकादशी के जागरण से फल मिलता है। जैसे मनुष्यों की मृत्यु निश्चय है, वैसे ही धन का नाश भी निश्चय है, यह समझकर एकादशी का उपवास करना चाहिये। जो कोई विधि पूर्वक प्रबोधनी एकादशी का उपवास करता है, उसके घर में त्रिलोकी के सब तीर्थ आ जाते हैं और वही ज्ञानी, योगी, तपस्वी और जितेन्द्रय है, उसी को भोग और मोक्ष मिलता है।
यह एकादशी विष्णु की प्यारी है और धर्म के सार को देने वाली है। इसका एक बार व्रत करने से ही मोक्ष का भागी हो जाता है। जो मनुष्य एकादशी का व्रत करके भक्ति से भगवान का पूजन करते हैं उनके सौ जन्मों के पाप दूर हो जाते है। इस व्रत से भगवान को प्रसन्न करके दसों दिशाओं में प्रकाश करता हुआ मनुष्य विष्णु लोक को जाता है। यह पवित्र एकादशी धन-धान्य को दने वाली और सब पापों को दूर करने वाली है, भक्ति पूर्वक इसका व्रत करने से कोई वस्तु दुलर्भ नहीं हैं। सूर्य-चन्द्र के ग्रहण में स्नान-दान से जो फल होता है उससे हजार गुना फल एकादशी के जागरण से मिलता है।
प्रबोधनी के दिन स्नान, दान जप, होम स्वाध्याय, भगवान का पूजन इसमें से जो कुछ किया जाय उसका करोड़ गुणा फल होता है। कार्तिक की एकादशी का व्रत न करने से जन्म भर का किया हुआ सब पुण्य वृथा है। कार्तिक में शास्त्र की कथा वार्ता से प्रसन्न होते है। वैसे मधुसूदन जैसे यज्ञ और और हाथी आदि दान से नहीं होते जो मनुष्य कार्तिक में विष्णु की कथा को पूरी अथवा उसका आधा अथवा चौथाई श्लोक कहते व सुनते हैं उसको सौ गौदान का फल मिलता है।
कार्तिक के महीने में सब धर्मो को छोड़कर कथा कहनी और सुननी चाहिए। कल्याण के लिए अथवा धन के लोभ से जो कार्तिक में भगवान की कथा कहते है वह अपने सैकड़ों कुलों का उद्धार कर देता है। जो भगवान के प्रबोध के दिन कथा कहते व सुनते है, उनको सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी के दान का फल मिलता है।
प्रबोधिनी एकादशी का व्रत कैसे करे?
एकादशी को प्रातः काल उठकर दातुन करके स्नान करे। नदी, तालाब कुंआं, बावड़ी अथवा घर में स्नान करके केशव भगवान् का पूजन करे, फिर कथा सुनो। नियम के लिये यह मन्त्र पढ़े:
एकादशी को निराहार व्रत करके दूसरे दिन भोजन करूंगा हे पुण्डरीकाक्ष! मैं आपकी शरण हूँ आप मेरी रक्षा करें।
इस मन्त्र को चक्रधारी भगवान के सामने पढ़े । भक्तिभाव में प्रसन्नता पूर्वक उपवास करें। रात्रि में भगवान के समीप बैठकर जागरण करे। जो गाता है, नाचता है, बाजे बजाता है अथवा भगवान की कथा को कहता व सुनता है वह पुण्यात्मा तीनों लोक के ऊपर निवास करता है। कार्तिक में प्रबोधनी के दिन बहुत से फूल, फल, कपूर, अगर, कुंकुम से भगवान का पूजन करना चाहिए।
एकादशी जागरण अनेक प्रकार के सुन्दर फलों से भगवान का पूजन और शंख में जल भरकर जनार्दन को अर्घ्य देना चाहिये। जो दिव्य अगस्त्य फूलों से जनार्दन का पूजन करता है, उसके लिए इन्द्र भी हाथ जोड़ता है।
जो कार्तिक में भक्ति पूर्वक भगवान् की बेल पत्र से पूजा करते है उनकी मुक्ति हो जाती है। कार्तिक में जो तुलसी के पत्ते और फूल से जनार्दन की पूजा करते हैं उनके दस हजार वर्षों के पाप भस्म हो जाते हैं। जो नित्य प्रति तुलसी की नौ प्रकार की भक्ति करते हैं वे करोड़ों युगों तक बैकुण्ठ में निवास करते हैं।
है मुने! कार्तिक में गुलाब के फूलों से जो परम भक्ति से भगवान का पूजन करता है वह मुक्ति का भागी होता है । बकुल और अशोक के फूलों से जो भगवान की पूजा करते हैं उनको जब तक सूर्य चन्द्रमा हैं, तब तक शोक नहीं होगा। जो सफेद या लाल कनेर के फूलों से जगन्नाथ की पूजा करते हैं उनसे चारों युगों में केशव भगवान प्रसन्न रहते हैं। जो बड़भागी मनुष्य केशव के ऊपर आम का बौर चढ़ाते है, उनको करोड़ गौदान का फल मिलता है।
जो दूब के अंकुर से भगवान का पूजन करते हैं उनको पूजा का सौ गुना फल प्राप्त होता है। जो छोंकरे के पत्तों से सुखदाई भगवान् का पूजन करते हैं वे भयंकर यमलोक के मार्ग सरलता से पार कर जाते हैं। जो मनुष्य जनार्दन भगवान् के ऊपर ककड़ी का फूल चढ़ाते हैं, उनको एक पल सुवर्ण चढ़ाने का फल मिलता है। जो मनुष्य सुनहरी केतकी का फूल जर्नादन भगवान् पर चढ़ाता है, गरुड़ध्वज भगवान उसके करोड़ जन्मों के पापों को भस्म कर देते हैं।
जो कुंमकुम के समान लाल रंग की सुगन्धित शतपत्रि का फूल जगन्नाथ पर चढ़ाता है उसका श्वेतद्वीप में निवास होता है। इस प्रकार भक्ति मुक्ति को देने वाले से केशव भगवान का रात्रि में पूजन करके प्रातःकाल उठकर नदी के तट पर चला जाय वहां स्नान, जप और नित्य कर्म करके घर जाकर विधि पूर्वक केशव भगवान् का पूजन करें। व्रत की धारणा के लिए बुद्धिमान मनुष्य ब्राह्मण भोजन करावें, भक्ति युक्त चित्त से सिर झुकाकर क्षमा मांगे और दक्षिणा देनी चाहिये।
नक्त भोजी मनुष्य अच्छे ब्राह्मणों को भोजन करावे। अयाचित नियम में सुवर्ण सहित बैल का दान करे। जिसने मांस भक्षण छोड़ दिया है उसको दक्षिणा सहित गौ देनी चाहिए। आंवले से स्नान करने के नियम में दही और शहद देना चाहिए जो फल छोड़े हाँ तो फल का दान करना चाहिए। तेल छोड़ा हो तो घी देना चाहिए घी छोड़ा हो तो दूध देना चाहिए। अन्न के छोड़ने के नियम में चावल देना चाहिए।
भूमि पर सोने वाले को गद्दा और चादर समेत शैया देनी चाहिए, पत्तल पर भोजन करने वाले को बर्तन में घी भर कर देना चाहिए। मौन धारण करने वाले को घंटा, तिल और सुवर्ण देना चाहिए और व्रत करने वाला मनुष्य ब्राह्मण- ब्राह्मणी को घी मिला हुआ सामान भोजन कराना चाहिए। विष्णु के मन्दिर में अथवा देव स्थान में नित्य दीपक जलाना चाहिए।
नियम की समाप्ति में तांबे या सुवर्ण की बेली घी भरकर उसमें लाख बत्ती रखकर विष्णु के भक्त ब्राह्मण को देना चाहिए। ब्राह्मणों को नमस्कार करके विदा करे। फिर आप भोजन करे। चार महीनों में जो छोड़ा है उसकी समाप्ति करे। जो बुद्धिमान इस प्रकार आचरण करता है उसको अनन्त फल मिलता है अन्त में बैकुण्ठ को जाता है। यदि व्रत बिगड़ जाये तो मनुष्य अन्धा व कोढ़ी हो जाता है।
कथा:
एक राजा के राज्य में सभी लोग एकादशी का व्रत रखते थे। प्रजा तथा नौकर-चाकरों से लेकर पशुओं तक को एकादशी के दिन अन्न नहीं दिया जाता था। पर वो लोग इस व्रत का महत्व नहीं समझते थे।
एक दिन किसी दूसरे राज्य का एक व्यक्ति राजा के पास आकर बोला, "महाराज! मैं बहुत गरीब हूँ, मेरे पास कोई काम नहीं है। कृपा करके मुझे नौकरी पर रख लें। मैं कोई भी काम कर लूगा।"
तब राजा ने उसके सामने एक शर्त रखी, "ठीक है, हम तुम्हे काम पे रख लेते हैं। रोज तो तुम्हें खाने को कुछ मिलेगा, पर एकादशी को अन्न नहीं मिलेगा। क्योकि इस राज्य में सब लोग एकादशी का व्रत रखते है, तो तुम्हे भी रखना होगा।"
उस व्यक्ति ने उस समय मजबूरी में हाँ तो कर दी, पर एकादशी के दिन जब उसे फलाहार का सामान दिया गया तो वह राजा के सामने जाकर गिड़गिड़ाने लगा और बोला, "महाराज! इससे मेरा पेट नहीं भरेगा। मैं भूखा ही मर जाऊंगा, मुझे अन्न दे दो।"
राजा ने उसे शर्त की बात याद दिलाई, पर वह अन्न छोड़ने को तैयार नहीं हुआ। तब राजा ने उसे आटा-दाल-चावल आदि दिए। वह हर रोज की तरह नदी पर पहुंचा और स्नान कर भोजन पकाने लगा। जब भोजन बन गया तो वह भगवान को बुलाने लगा और बोला, "आओ भगवान! भोजन तैयार है।"
उसके बुलाने पर पीताम्बर धारण किए भगवान चतुर्भुज रूप में आ पहुँचे तथा प्रेम से उसके साथ भोजन करने लगे। भोजनादि करके भगवान अंतर्धान हो गए तथा वह अपने काम पर चला गया।
पंद्रह दिन बाद अगली एकादशी को वह राजा से पास जब भोजन मांगने गया तो उसने राजा को कहा, "महाराज, मुझे दुगुना सामान दीजिए। उस दिन तो मैं भूखा ही रह गया।" राजा ने कारण पूछा तो उसने बताया, "हमारे साथ भगवान भी खाते हैं। इसीलिए हम दोनों के लिए ये सामान पूरा नहीं होता।"
यह सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और राजा बोला, "मैं नहीं मान सकता कि भगवान तुम्हारे साथ खाते हैं। मैं तो इतना व्रत रखता हूँ, पूजा करता हूँ, पर भगवान ने मुझे कभी दर्शन नहीं दिए।"
राजा की बात सुनकर वह बोला, "महाराज! यदि विश्वास न हो तो साथ चलकर देख लें।" राजा उसकी बात मान कर उसकी साथ चला गया। राजा एक पेड़ के पीछे छिपकर बैठ गया। उस व्यक्ति ने भोजन बनाया तथा भगवान को शाम तक पुकारता रहा, परंतु भगवान न आए। अंत में उसने कहा, "हे भगवान! यदि आप नहीं आए तो मैं नदी में कूदकर प्राण त्याग दूंगा।"
लेकिन भगवान नहीं आए। तब वह प्राण त्यागने के उद्देश्य से नदी की तरफ बढ़ा। प्राण त्यागने का उसका दृढ़ इरादा जान शीघ्र ही भगवान ने प्रकट होकर उसे रोक लिया और साथ बैठकर भोजन करने लगे। खा-पीकर वे उसे अपने विमान में बिठाकर अपने धाम ले गए।
यह देख राजा ने सोचा कि व्रत-उपवास से तब तक कोई फायदा नहीं होता, जब तक मन शुद्ध न हो। इससे राजा को ज्ञान मिला। वह भी मन से व्रत-उपवास करने लगा और अंत में स्वर्ग को प्राप्त हुआ।