कार्तिक कृष्णापक्ष में रमा नाम की शुभ एकादशी होती है। यह सब पापों को हरने वाली है।
रमा एकादशी का व्रत कब आता है?
रमा एकादशी का व्रत, कार्तिक महीने की कृष्णापक्ष को आता है।
रमा एकादशी का व्रत कैसे करे?
भक्ति भाव से उपवास के नियमों को ग्रहण करें नियम करके मध्याह्न के समय शालीग्राम की मूर्ति के सामने विधि पूर्वक श्राद्ध करके शुद्ध ब्राह्मणों का पूजन करके भोजन करावे दक्षिणा दें।
एकादशी का व्रत कितना उत्तम माना जाता है?
इस व्रत को जो मनुष्य करते हैं, वे निश्चय ही सब पापों से छूटकर स्वर्ग को जाते हैं। इसके पाठ करने और सुनने से अवश्मेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
कथा:
प्राचीन काल में मुचुकुंद नाम के एक राजा थे। वह राजा विष्णु का भक्त और सत्यवादी था, अपने धर्म का पालन करते हुए वह दोषरहित राज्य को प्राप्त हुआ। उनकी एक बेटी थी, उसका नाम चंद्रभागा था। उसका विवाह चांदसेन के पुत्र शोभन से हुआ। शोभन एक बार अपनी पत्नी के साथ अपने ससुराल आया।
उसी दिन पावन एकादशी का व्रत आ गया। जब व्रत का दिन आया तो चंद्रभागा सोचने लगी कि हे भगवन अब क्या होगा? उसका पति बहुत कमजोर है। वह भूख बर्दाश्त नहीं कर सकता और उसके पिता का नियम उपवास के बारे में बहुत सख्त है। एकादशी के दिन भोजन नहीं करना चाहिए।
चंद्रभागा के वचन सुनकर शोभन ने अपनी पत्नी से कहा, "हे प्रिय पत्नी! अब मैं क्या करूँ? हे चंद्रभागा! मुझे ऐसी शिक्षा दो, जिसके करने से मेरा जीवन नष्ट न हो।" चंद्रभागा ने कहा, "हे शोभन! मेरे पिता के घर में कोई नहीं खाता है। हाथी, घोड़े और जानवर भी नहीं खाते हैं, कांत! यदि आप खाना चाहते हैं, तो घर छोड़ दें।"
शोभन ने कहा, "नहीं, मैं उपवास करूंगा। भाग्य में जो लिखा है वही होगा।" इस प्रकार उन्होंने अपना भाग्य समझकर उत्तम व्रत किया। उसका शरीर भूख-प्यास से व्याकुल हो रहा था और वह बहुत दु:खी था। सूर्य अस्त हो गये। वह रात वैष्णव पुरुषों के लिए आनंदमय हो गई और शोभन के लिए असहनीय हो गई। सूर्योदय के समय शोभन की मृत्यु हो गई। राजा ने राज्य के योग्य सुगन्धित चंदन से उनका अंतिम संस्कार करवाया।
अपने पति के अन्तिम संस्कार करके, चंद्रभागा अपने पिता के घर में रहने लगी। रमा के व्रत के प्रभाव से मंदराचल की शिखर पर शोभन को बहुत रमणीय देवपुर मिला। सिंहासन पर बैठकर गया, श्वेत छत्र और चंवर प्राप्त हो गये । किरीट, हार, बाजूबन्द इनसे सुशोभित हो गया। गन्धर्व और अप्सरा सेवा करने लगे। वहां शोभन दूसरे इन्द्र की तरह प्रतीत हुआ।
मुचुकुंद में रहने वाला सोमशर्मा नाम का एक ब्राह्मण तीर्थ यात्रा करता हुआ रमणीय देवपुर पहुँचा। वहाँ उसने राजा के दामाद को देखा और उसके पास गया। शोभन ने जल्दी से सिंहासन से उठकर ब्राह्मण का अभिवादन किया और अपने ससुर और अपनी पत्नी चंद्रभागा और नगर के लोगों की कुशलक्षेम पूछी। सोमशर्मा ने कहा, "हे राजा! तुम्हारे ससुर का घर ठीक है। चंद्रभागा ठीक है और शहर में सब कुछ ठीक है।"
ब्राह्मण ने आगे पूछा, "यह विचित्र नगर आपको कैसे मिला?" शोभन बोला, "कार्तिक कृष्णपक्ष में रमा एकादशी होती है। मैंने यह व्रत श्रद्धापूर्वक नहीं किया। इसलिए यह अस्थिर देवपुर मुझको मिला है। इसको अटल करने का एक ही उपाय है।"
ब्राह्मण बोला, "हे राजेन्द्र ! वह मुझसे कहिए मैं उसका निश्चय करूँगा।" शोभन बोला, "आप बस चन्द्रभागा से यह वृतान्त कहिये, केवल वो ही इस नगर को स्थिर कर सकते है।"
श्रेष्ठ ब्राह्मण ने चन्द्रभागा को सारा वृतान्त सुनाया। चन्द्रभागा आश्चर्य से प्रफुल्लित हो गई। सोमशर्मा बोला, "हे पुत्री! तुम्हारे पति को मैंने आंखों से देखा और देवताओं के समान उसका प्रकाशवान पुर भी देखा है। प्रन्तु उसने देवपुर को अस्थिर बताया है। उसके अटल होने का उपाय केवल कर सकते हो।"
चन्द्रभागा बोली, "विप्रर्षे ! मुझको मेरे पति से मिलने की अभिलाषा है। अतः मुझको वहां ले चलिए। हे द्विज! अपने व्रत के पुण्य से मैं उस नगर को स्थिर कर दूंगी।" इस से हम दोनों साथ भी रहा पाएगे। बिछुड़े हुए का मिलाप कराने से बड़ा पुण्य होता है।
यह सुन कर सोमशर्मा उसके साथ चला गया। ऋषि के मन्त्रों के प्रभाव और एकादशी के व्रत के प्रभाव से चन्द्रभागा का दिव्य शरीर हो गया और दिव्य गति को प्राप्त हुई । प्रसन्नता से प्रफुल्लित नेत्र किये हुए अपने पति के पास पहुंच गई।
शोभन भी अपनी आई हुई स्त्री को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और उसे बुलाकर अपनी बांयी तरफ बैठा लिया। इस प्रकार वह अपने पति के साथ आनन्द से रहने लगी। वह दिव्य रूप होकर सुन्दर आभूषणों से सुशेभित हुई सुख भोगने लगी, शोभन भी उसके साथ दिव्य रूप होकर विहार करने लगा।