अधिकमास कृष्ण-गणेश चतुर्थी व्रत कथा Spiritual RAGA

(चन्द्रसेन नामक राजा की कथा)
अधिकमास कृष्ण-गणेश चतुर्थी व्रत कथा
अधिकमास कृष्ण-गणेश चतुर्थी व्रत कथा

अधिकमास कृष्ण-गणेश चतुर्थी व्रत किस महीने में आता है?

अधिकमास कृष्ण-गणेश चतुर्थी व्रत मार्च या अप्रैल के महीने में आता है।


विवरण:


यह व्रत संकटनाशक गणेश चतुर्थी व्रत में से एक है। इस व्रत को आप अपनी सभी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए कर सकते हैं। यह व्रत आपके घर में सुख-शांति लाता है। इस व्रत में आप शांति पाठ भी पढ़ सकते हैं। रात को चंद्रमा को जल चढ़ाने के बाद व्रत पूर्ण होगा।


कथा:

॥ श्री महागणाधिपतये नमः ॥


स्कन्दकुमार जी कहते हैं कि हे ऋषियों! आप सब पुराण में लिखित इस शुभदायक कथा को सुनिए जिसमें गणपति जी के व्रत के फल को बताया गया है।


पुराने समय में सतयुग में चन्द्रसेन नाम के एक राजा थे। वे अपनी रानी सहित दीक्षा लेकर परिवार के साथ रहते थे। उनकी रानी बहुत ही योग्य एवं पतिव्रता थी। उसका नाम रत्नावली था। दोनों में बहुत प्रेम था। एक बार किसे युद्ध में शत्रुओं ने उनके राज्य को उनसे छीन लिया। राजकोष एवं सेना पर उन्होंने अपना कब्जा कर लिया। 


राजा अपने बन्धु-बान्धवों से अलग हो गए। राज्य के छिन जाने पर राजा अपनी रानी रत्नावली के साथ वन में चले गये। एक ही वस्त्र से आच्छादित हुए वे दोनों भूख-प्यास से व्याकुल हो गए। राजा रानी दोनों वन में भटकने लगे। सायंकाल होने पर सूर्य छिप गया। 


उस विस्तृत वन में बहुत से पशु-पक्षी रहते थे। रानी के पैर में अचानक काँटा चुभ जाने से राजा को बहुत कष्ट हुआ। वन में विचरण करते हुए राजा ने प्रातः काल महर्षि मार्कण्डेय जी को देखा। शनै-शनै चलकर वे दोनों वहाँ तक पहुँचे और उनको प्रणाम किया। 


महर्षि मार्कण्डेय जी से हाथ जोड़कर राजा ने कहा- हे पूज्यवर! मैंने पहले जन्म में कौन-सा ऐसा पाप किया था जिसके फलस्वरूप शत्रुओं द्वारा मेरा राज्य छीन लिया गया? मार्कण्डेय ऋषि ने उत्तर दिया कि हे राजन्! आप अपने पहले जन्म के हाल को सुनिए। एक बार आप शिकार करने घने वन में चले गये। उस वन में आखेट करते हुए आपको रात हो गई और अधिकमास की चतुर्थी आ गई। 


उस वन में आपने एक सुन्दर सरोवर देखा और उसके पास किनारे पर लाल रंग की साड़ी में बहुत-सी नागकन्याओं को देखा। वे सब गणपति जी का पूजन कर रही थीं। यह देख आपको बहुत विस्मय हुआ आपने उनके पास पहुँचकर नम्रता से पूछा कि हे देवियों! गणेश जी की पूजा किस प्रकार करनी चाहिए? इसका क्या प्रभाव है? मैं भी इस पूजन को करना चाहता हूँ।


नागकन्याओं ने उत्तर दिया कि आप गणपति जी की पूजा कीजिए। इससे सब तरह की मनोकामनाएँ समस्त सिद्धियाँ, सुख-शांति, सन्तान और धन की प्राप्ति होती है। राजा ने पूछा- हे नागकन्याओं गणपति जी की पूजा कौन से महीने में और किस तिथि को करनी चाहिए? इसकी पूजा की विधि क्या है ? इसमें किस चीज का दान करना चाहिए ? यह सब आप मुझसे कहिए।


नागकन्याओं ने कहा कि हे राजन्! अधिकमास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को चन्द्रमा के निकलने पर विधिवत् गणेश जी की पूजा करनी चाहिए। अपनी शक्ति अनुसार श्रद्धा-भक्ति से पूजन करें। गणपति जी को पंचामृत से नहलाकर उन पर लाल फूल चढ़ावें । दो वस्त्र, धूप, दीप, नैवेद्य, सुगन्ध वाले द्रव्य चढ़ावें घृत, चीनी युक्त पन्द्रह लड्डू भोग हेतु बनावें । 


उनमें से पाँच लड्डूओं को गणेश जी पर चढ़ाएँ तथा पाँच लड्डू ब्राह्मण को दान कर दें। शेष पाँच लड्डूओं में से पहले कुमारी कन्याओं को देकर बाद में स्वयं प्रसाद ले और फिर पुराण में वर्णित कथा को सुनें। इस प्रकार करने से मनुष्य की सभी इच्छाएँ पूरी होती हैं और उसे सिद्धि मिलती है। यही गणेश जी की पूजा करने की विधि है। नागकन्याओं द्वारा बताई गई इस विधि को सुनकर राजा ने उन्हें बारम्बार नमस्कार किया। 


इसके बाद सरोवर के किनारे जाकर राजा ने गणेश जी का ध्यान करके इस व्रत को करने का अपने मन में संकल्प किया और वहाँ से चले गए। इस संकल्प मात्र के प्रभाव से गणेश जी आप पर प्रसन्न हो गए और आपको स्त्री, पुत्र, धन आदि से परिपूर्ण कर दिया। महल में रत्नों के हार, सोना, गौ, हाथी, घोड़े आदि किसी चीज की कमी नहीं रही। कुछ दिन बाद आप धन के घमण्ड में व्रत करना भूल गए। इसके बाद आपकी उस जन्म में मृत्यु हो गई। 


हे राजन्! उस जन्म में जो पूजन किया था उसके फलस्वरूप आपका जन्म राजवंश में हुआ तथा आपको सुन्दर शरीर एवं सुन्दर नारी तथा धनादि की प्राप्ति होने से घमण्ड में आकर आपने इस व्रत को छोड़ दिया जिससे आपकी ऐसी बुरी दशा हुई है। राजा ने पूछा- हे द्विज! इस संकट से छुटकारा पाने के लिए मुझे क्या करना चाहिए ? 


मार्कण्डेय ऋषि ने कहा कि हे राजन्! आप पूर्ववत् गणेश जी की पूजा और संकटनाशक चतुर्थी का व्रत कीजिए। इससे आप पर गणपति जी की कृपा हो जाएगी और आपको दोबारा राज्य का सुख प्राप्त होगा। व्यास ऋषि कहते हैं कि मार्कण्डेय जी की यह बात सुनकर राजा ने उन्हें नमस्कार किया और अपने भवन में चले आये। रानी के साथ राजा ने श्रद्धापूर्वक भक्ति से विधि-विधान सहित व्रत किया। ऐसा करने से उनके शत्रुओं का नाश हुआ और उन्होंने पुनः अपना राज्य प्राप्त कर लिया।

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