माघ कृष्ण-गणेश चतुर्थी व्रत कथा Spiritual RAGA

(ऋषिशर्मा ब्राह्मण की कथा)

माघ कृष्ण-गणेश चतुर्थी व्रत कथा
माघ कृष्ण-गणेश चतुर्थी व्रत कथा

माघ कृष्ण-गणेश चतुर्थी व्रत किस महीने में आता है?


माघ कृष्ण-गणेश चतुर्थी व्रत जनवरी या फरवरी के महीने में आता है।


माघ कृष्ण में गणेश जी के किस नाम की पूजा करनी चाहिए?


इस दिन ‘भालचन्द्र’ नाम के गणेश जी की पूजा करनी चाहिए।


विवरण:


यह व्रत संकटनाशक गणेश चतुर्थी व्रत में से एक है। इस व्रत को आप अपनी सभी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए कर सकते हैं। यह व्रत आपके घर में सुख-शांति लाता है। इस व्रत में आप शांति पाठ भी पढ़ सकते हैं। रात को चंद्रमा को जल चढ़ाने के बाद व्रत पूर्ण होगा।


कथा:

॥ श्री महागणाधिपतये नमः ॥


पार्वती जी ने गणेश जी से पूछा, "हे पुत्र! माघ के महीने में किस गणेश की पूजा करनी चाहिए? उस दिन पूजन में किस चीज का भोग लगाना चाहिए और किस प्रकार का आहार लेना चाहिए? इसे विस्तारपूर्वक बतलाने का अनुग्रह करें।"


गणेश जी ने उत्तर दिया, "हे माता! माघ मास में ‘भालचन्द्र’ नाम के गणेश जी की पूजा करनी चाहिए। इस दिन तिल के दस लड्डू बनाएँ। पाँच लड्डू देवता को अर्पित करें और बाकी बचे पाँच लड्डू ब्राह्मण को दान कर दें। साथ ही ब्राह्मण की श्रद्धापूर्वक पूजा करें और उन्हें दक्षिणा दें। इसके बाद स्वयं भी तिल के दस लड्डूओं का भोजन करें।"


इसके बारे में मैं आपको राजा हरिश्चन्द्र की कथा सुनाता हूँ।


सतयुग में हरिश्चन्द्र नाम के एक यशस्वी राजा हुए थे। वे क्षत्रिय धर्म में चतुर, सज्जन स्वभाव, सत्यवक्ता और विद्वान् ब्राह्मणों के आराधक थे। उनके राज्य में अधर्म का नाम तक नहीं था तथा कोई भी व्यक्ति गरीब, लूला-लंगड़ा अथवा दुखी न था। सभी व्यक्ति रोग रहित एवं चिरायु होते थे। 


उनके राज्य में ऋषिशर्मा नाम के एक तपस्वी ब्राह्मण रहते थे। एक पुत्र को प्राप्त करने के पश्चात् उनका स्वर्गवास हो गया। पुत्र का पालन पोषण उनकी धर्मपत्नी करने लगी। कोई उपाए न होने की कारण भिक्षा माँगकर वह विधवा ब्राह्मणी पुत्र का भरण-पोषण करती थी। 


ब्राह्मणी माघ महीने की संकटा चतुर्थी का व्रत किया करती थी। वह सदैव गोबर से गणपति जी की मूर्ति बनाकर उसका पूजन किया करती थी। भिक्षा माँगकर ही वो तिल के दस लड्डू बनाया करती थी।


उसे राज्य में एक चाण्डाल कुम्हार रहता था। उसने अपनी पुत्री के विवाह हेतु अनेक बार मिट्टी के बर्तनों को पकाने के लिए आवां लगाया लेकिन उसके बर्तन कभी नहीं पके और हमेशा कच्चे ही रहे। तब उसने एक तांत्रिक से अपने समस्या का उपाए पूछा। 


तांत्रिक कहा कि तुम बिना बताये किसी लड़के की बलि चढ़ा दो तुम्हारा आवां पक जाएगा। उसने विचार किया कि वो किसके बालक की भेंट चढ़ाए? जिस किसी के बालक की भेंट चढ़ाऊँगा वह उसे जिन्दा नहीं छोड़ेगा। उसने अपनी पत्नी से सलाह की कि ऋषिशमां ब्राह्मण का स्वर्गवास हो गया है। 


उनकी विधवा पत्नी भिक्षा से अपना पेट भरती है। वह अपने बालक का क्या करेगी? उसने सोचा अगर उसके बालक की भेंट चढ़ा देगा तो उसका आवां पक जाएगा और उस विधवा का उपकार भी हो जाएगा।


इसी के मध्य विधवा का पुत्र गणेश जी की प्रतिमा अपने गले में बाँधकर कहीं खेलने चला गया। तब वो चाण्डाल कुम्हार ने उस विधवा के बालक को जबरदस्ती पकड़कर अपने आवां में बैठा कर उस आवें को बन्द कर दिया और मिट्टी के बर्तनों को पकाने हुते, उसमें अग्नि दे दी। वो इस घोर पाप कर्म को करके रात में चिन्तारहित होकर सो गया।


बच्चे की माता जब घर पहुंची तो घर पे अपने बच्चे को न पाकर वह बहुत चिंतित हो गई। अपने बालक को ढूँढ़ने लगी जब वो उसे न मिला वो वह बहुत दुखी हुई। वह ब्राह्मणी रोती बिलखती हुई गणेश जी की प्रार्थना करने लगी। " हे गणेश जी! हाथी के समान मुख वाले! विशाल काय वाले! आप मुझ दुखियारी की रक्षा कीजिए। 


हे लम्बोदर! हे विनायक! हे चार भुजाओं वाले ! हे मस्तक पर चन्द्रमा को धारण करने वाले! हे दयावन्त! मैं पुत्र के विरह में दुखी हूँ।” इस तरह वह ब्राह्मणी सारी रात रोती विलखती रही।


सुबह हो जाने पर कुम्हार अपने पके हुए बर्तनों को देखने के लिए आया जब उसने आवां खोलकर देखा तो उसमें जाँघ के बराबर पानी इकट्ठा हुआ पाया और पानी में बैठे एक बालक को खेलते हुए देखा। इस आश्चर्यजनक घटना को देखकर वह आश्चर्यचकित हो गया और डर के मारे काँपने लगा। 


इस अद्भुत घटना की खबर उसने राज दरबार में आकर दी और उसने अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म को भी राज्य सभा में बता दिया। कुम्हार ने कहा, “हे महाराज हरिश्चन्द्र! मैं अपने बुरे कार्य के लिए मृत्यु के योग्य हूँ। सुबह जब मैंने आवां खोला तो मुझे दिखाई दिया कि इस लड़के को मैं जिस तरह बैठा गया था वह उसी प्रकार बिना डर के बैठा है और उस आवें में जाँघ तक का पानी भरा हुआ है। इस भयानक दृश्य से मैं कांप गया और इसकी जानकारी देने मैं आपके पास आया हूँ।”


कुम्हार की बात सुनकर राजा बहुत ही हैरान हुए और उस बालक को देखने के लिए गए। वहाँ बालक को आनन्दपूर्वक खेलते हुए देखकर मंत्री से राजा ने कहा, “यह लड़का किसका है? इसका पता लगाओ। इस आवें में जांघ जितना पानी कहाँ से आया? बालक को न तो अग्नि ने जलाया और न यह भूख प्यास से व्याकुल है। यह आवें में उसी प्रकार खेल रहा है जैसे अपने घर में खेल रहा हो।” 


राजा इस प्रकार की बातें कर रहे थे कि तभी वह विधवा ब्राह्मणी रोती-सिसकती हुई वहाँ आ गई। वह कुम्हार को कोसने लगी। जिस तरह गाय अपने बछड़े को देखकर रंभाती है वही दशा उस ब्राह्मणी की थी। वह ब्राह्मणी अपने बालक को गोदी में लेकर प्यार करने लगी और कांपती हुई राजा के सामने बैठ गई। राजा हरिश्चन्द्र ने पूछा- हे ब्राह्मणी! क्या तू कोई जादू टोना जानती है या तूने कोई धर्म का कार्य किया है जिसके फलस्वरूप बच्चे को अग्नि छू तक नहीं सकी ? 


राजा के ऐसा कहने पर ब्राह्मणी बोली- हे महाराज! मैं कोई जादू टोना नहीं जानती और न मैं कोई तपस्या, योग आदि की विधि ही जानती है। हे महाराज! मैं तो संकटनाशक गणेश चतुर्थी का व्रत करती हूँ। उसी व्रत के प्रभाव के कारण मेरा पुत्र जीवित बच गया है। ब्राह्मणी की बात सुनकर राजा ने आदेश दिया कि मेरे राज्य की समस्त जनता इस संकटनाशक गणेश चतुर्थी के व्रत को करे। उस दिन से नगर के सभी लोग प्रत्येक मास की गणेश चतुर्थी का व्रत करने लगे।

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