एक समय सभी प्राणियों के हितार्थ परम पवित्र भागीरथी के तट पर अधि समाज द्वारा विशाल गोष्ठी का आयोजन किया गया। विज्ञ महर्षियों की एकत्रित सभा में व्यासजी के परम शिष्य पुराणवत्ता सूतजी हरिकीर्तन करते हुए पधारे। सूतजी को देखते ही शौनकादि अट्ठासी हजार ऋषि-मुनियों ने दंडवत् प्रणाम किया। महाज्ञानी सूतजी ने भक्ति भाव से ऋषियों को हृदय से लगाया तथा आशीर्वाद दिया।
विद्वान् ऋषिगण और सब शिष्य आसनों पर विराजमान हो गए। मुनिगण विनीत भाव से पूछने लगे कि हे परम दयालु कलिकाल में शकरजी की भक्ति किस आराधना द्वारा उपलब्ध होगी, हम लोगों को बताने की कृपा कीजिये, क्योंकि प्रदोष (त्रयोदशी) कलियुग के सभी प्राणी पापकर्म में रत होकर वेद शाखों से विमुख रहेंगे। दीन जन अनेकाँ संकटों से त्रस्त रहेंगे। हे मुनिश्रेष्ठ! कलिकाल में सत्कर्म की ओर किसी की रुचि न होगी। जब पुण्य क्षीण हो जायेंगे तो मनुष्य की बुद्धि असत् कर्मों की ओर प्रेरित होगी, जिससे दुर्विचारी पुरुष वंश सहित समाप्त हो जायेंगे।
इस अखिल भूमण्डल पर जो मनुष्य ज्ञानी होकर ज्ञान की शिक्षा नहीं देता, उस पर परम पिता परमेश्वर कभी प्रसन्न नहीं होते हैं। हे महामुने! ऐसा कौन-सा उत्तम व्रत है, जिससे मनवांछित फल की प्राप्ति होती है, कृपा कर बतलाइये। ऐसा सुनकर दयालुहृदय श्रीसूतजी कहने लगे हे श्रेष्ठ मुनियों तथा शीनकजी!! आप धन्यवाद के पात्र हैं, आपके विचार सराहनीय एवं प्रशंसनीय हैं।
आप वैष्णवों में अग्रगण्य हैं; क्योंकि आपके हृदय में सदा परहित की भावना रहती है, इसलिए हे शौनकादि ऋषियों! सुनो, मैं उस व्रत को तुमसे कहता हूँ जिसके करने से सब पाप नष्ट हो जाते हैं, धन- वृद्धि कारक, दुःख विनाशक, सुख प्राप्त कराने वाला, संतान देने वाला, मनवांछित फल प्राप्ति कराने वाला यह व्रत तुमको सुनाता हूँ। जो किसी समय भगवान् शंकर ने सतीजी को सुनाया था और उनसे प्राप्त यह परम श्रेष्ठ उपदेश मेरे पूज्य गुरुजी ने मुझे सुनाया था। जिसे आपको समय पाकर शुभ वेला में में सुनाता हूँ। बोलो उमापति महादेव की जय।
सूतजी कहने लगे- आयु वृद्धि, स्वास्थ्य लाभ हेतु रवि (त्रयोदशी) प्रदोष का व्रत करे, इसकी विधि इस प्रकार है- प्रातः स्नान कर निराहार रहकर शिवजी के ध्यान में मग्न हो शिव मन्दिर में जाकर शंकरजी की पूजा करे। पूजा के पश्चात् अर्द्धपुण्ड्र त्रिपुण्ड्र का तिलक धारण करे, बेलपत्र चढ़ाये। धूप, दीप, अक्षत से पूजा करे, ऋतुफल चढ़ाये, (ॐ नमः शिवाय) मंत्र का रुद्राक्ष की माला से जप करे, ब्राह्मण को भोजन करा सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा दे। तत्पश्चात् मौन व्रत धारण करें, व्रती को सत्य भाषण करना आवश्यक है, हवन आहुति भी देनी चाहिए।
मंत्र- 'ॐ ह्री क्लो नमः शिवाय स्वाहा' से आहुति देनी चाहिए। इससे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। व्रती पृथ्वी पर शयन करे, एक बार भोजन करे, इससे सर्व कार्य सिद्ध होते हैं, श्रावण मास में तो इसका विशेष महत्त्व है। यह सर्व सुख, धन, आरोग्यता देने वाला होता है, यह व्रत इन सब मनोरथों को पूर्ण करता है। हे ऋषिवरों! यह प्रदोष व्रत जो मैने आपको बताया किसी समय शंकरजी ने सतीजी को और वेदव्यास मुनि ने मुझको सुनाया था। शौनकादि ऋषि बोले- हे पूज्यवर महामते! आपने यह व्रत परम गोपनीय, मंगलप्रद,
कष्ट निवारक बतलाया है, कृपया यह बताने का कष्ट करें कि यह व्रत किसने किया और उसे क्या फल प्राप्त हुआ? श्रीसूतजी बोले- हे विचारवान् ज्ञानियों! आप शिव के परम भक्त हैं, आपकी भक्ति देखकर मैं व्रती पुरुषों की कथा कहता हूँ। एक ग्राम में अति दीन ब्राह्मण निवास करता था। उसकी साध्वी स्त्री प्रदोष व्रत किया करती थी, उसके घर एक ही पुत्ररत्न था, एक समय की बात है कि वह पुत्र गंगा स्नान करने के लिये गया, दुर्भाग्यवश मार्ग में चोरों ने घेर लिया और वे कहने लगे कि हम तुझे मारेंगे, नहीं तो तू अपने पिता का गुप्त धन बतला दे।
बालक दीन भाव से कहने लगा कि हे बन्धुओं! हम अत्यन्त दुःखी दीन हैं। हमारे पास धन कहाँ है? चोर फिर कहने लगे कि तेरे पास पोटली में क्या बँधा है? बालक ने निःसंकोच उत्तर दिया कि मेरी माता ने मुझे रोटी बनाकर बाँध कर दी है। दूसरा चोर बोला कि भाई यह तो अति दीन-दुःखी है, इसे छोड़िये। बालक इतनी बात सुनकर वहाँ से प्रस्थान किया और एक नगर में पहुँचा।
नगर के पास एक बरगद का पेड़ था, बालक वहाँ बैठ गया और थककर वृक्ष की छाया में सो गया, उस नगर के सिपाही चोरों की खोज कर रहे थे कि खोज करते-करते उस बालक के पास आ गये, सिपाही बालक को भी चोर समझकर राजा के समीप ले गये। राजा ने उसे कारावास की आज्ञा दे दी। उधर बालक की माँ भगवान् शंकरजी का प्रदोष व्रत कर रही थी। उसी रात्रि राजा को स्वप्न हुआ कि यह बालक थोर नहीं है, प्रातः छोड़ दो नहीं तो आपका वैभव, राज्य सब शीघ्र ही नष्ट हो जायेगा।
रात्रि समाप्त होने पर राजा ने उस बालक से सारा वृत्तांत पूछा, बालक ने सारा वृत्तांत कह सुनाया। वृत्तांत सुन राजा ने सिपाही भेज बालक के माता- पिता को बुलवा लिया। राजा ने उन्हें जब भयभीत देखा तो कहा- भय मत करो, तुम्हारा बालक निर्दोष है। हम तुम्हारी दरिद्रता देखकर पाँच गाँव दान में देते हैं। शिवजी की दया से ब्राह्मण के आनन्द होने लगे। इस प्रकार जो कोई इस व्रत को करता है, उसे आनन्द प्राप्त होता है। शौनकादि ऋषि बोले- हे दयालु! आप कृपा करके सोम त्रयोदशी प्रदोष का व्रत सुनाइये।