वृष वा मिथुन के सूर्य के ज्येष्ठ मास में शुक्लपक्ष की निर्जला एकादशी है उसका यत्न पूर्वक निर्जल उपवास करना चाहिये।
ज्येष्ठ शुक्लपक्ष की एकादशी का क्या नाम है?
ज्येष्ठ शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम है: निर्जला एकादशी।
निर्जला एकादशी कौन से महीने में आते है?
निर्जला एकादशी मई-जून में आते है।
निर्जला एकादशी का व्रत कैसे करे?
स्नान और आचमन में जल का निषेध नहीं है। माशे भर स्वर्ण का दाना जिसमें डूब जाय उतना ही जल आचमन के लिये कहा गया है। वही शरीर को पवित्र करने वाला है। गौ के कान की तरह हाथ करके माशे भर जल पीना चाहिए। उससे थोड़ा या अधिक जल पीने से मदिरा पान के समान होता है और कुछ न खाये, नहीं तो व्रत भंग हो जाता है।
एकादशी के सूर्योदय से दूसरे दिन के सूर्योदय तक जलपान न करे। ऐसा करने से बारहों महीनों की एकादशी का फल उसको बिना यत्न के मिल जाता है। फिर द्वादशी को सवेरे निर्मल जल में स्नान कर ब्राह्मणों को जल और स्वर्ण दान करें करने वाला कृत कृत्य ब्राह्मणों सहित भोजन करे। साल भर में जितनी एकादशी होती हैं उनका फल इस एकादशी के व्रत करने से मिल जाता है, इनमें सन्देह नहीं है।
एकादशी का व्रत कितना उत्तम माना जाता है?
एकादशी को निराहार रहने से मनुष्य सब पापों से छूट जाता है। ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष की एकादशी में जल भी वर्जित है। सब तीर्थों से जो पुण्य होता है और सब दान करने से जो फल मिलता है वह फल इस एकादशी का व्रत करने से मिल जाता है। इस मन्त्र को पढ़कर सब पापों को दूर करने के लिए इन्द्रियों को वश में करके श्रद्रा पूर्वक व्रत को करे। द्वादशी के दिन गन्ध, पुष्प, जल और दीपक से देवताओं के ईश्वर वामन जी का पूजन करना चाहिए।
विधि पूर्वक पूजन करके इस मन्त्र का उच्चारण करे। "देवताओं के ईश्वर हे इन्द्रियों के ईश्वर! हे संसार समुद्र से पार करने वाले! जल से भरे हुए कलश के दान करने से मुझको परम गति दीजिए।" ऐसा कहकर ब्राह्मणों के लिए शक्ति के अनुसार कलश देने चाहिए। इस प्रकार जो पवित्र और पापों को दूर करने वाली इस एकादशी का व्रत करता है वह सब पापों को दूर करने वाली इस एकादशी का व्रत करता है वह सब पापों से छूटकर परम पद को प्राप्त होता हैं।
कथा:
प्राचीन काल की बात है एक बार भीम ने वेद व्यास जी से कहा, "उनकी माता और सभी भाई एकादशी व्रत रखने का सुझाव देते हैं, लेकिन उनके लिए कहा संभव है कि वह पूजा-पाठ कर सकें, पर व्रत में भूखा नहीं रह सकते।"
इस पर वेदव्यास जी ने कहा, "भीम, अगर तुम नरक और स्वर्ग लोक के बारे में जानते हो, तो हर माह को आने वाली एकादश के दिन अन्न मत ग्रहण करो।" तब भीम ने कहा, "क्या पूरे वर्ष में कोई एक व्रत नहीं कर सकता है? हर माह व्रत करना संभव नहीं होगा क्योंकि मुझे बहुत भूख लगती है।" वेदव्यास जी ने मनाकर दिया।
भीम ने वेदव्यास जी से निवेदन किया, "मुझे कोई ऐसा व्रत बताओ, जो पूरे साल में एक ही दिन रखना हो और उससे स्वर्ग की प्राप्ति हो जाए।" तब व्यास जी ने भीम को ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के बारे में बताया, "निर्जला एकादशी व्रत में अन्न व जल ग्रहण करने की मनाही होती है। द्वादशी को सूर्योदय के बाद स्नान करके ब्राह्मणों को दान देना चाहिए और भोजन कराना चाहिए फिर स्वयं व्रत पारण करना चाहिए। इस व्रत को करने व्यक्ति को मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है।"
वेद व्यास जी की बातों को सुनने के बाद भीमसेन निर्जला एकादशी व्रत के लिए राजी हो गए। उन्होंने निर्जला एकादशी व्रत किया। इसलिए इसे भीमसेनी एकादशी या पांडव एकादशी कहा जाने लगा।